ज्ञानार्णव ग्रन्थ में लोकधर्म

मुख्य बिन्दु- 1-प्रस्तावना‘ 2-कृतिकार के व्यक्तित्व में जीवन दर्शन‘ 3- मंगलाचरण में लोकधर्म‘ 4-एकत्व भावना में जीवनदर्शन‘ 5- अशुचि भावना में जीवन दर्शन‘ 6- ध्यान में लो धर्म‘ 7- अहिंसा व्रत में जीवनदर्शन‘ 8- सत्यव्रत में जीवनदर्शन‘ 9- ब्रहान्चर्य में जीवन दर्शन‘ 10- स्त्री स्वरूप‘ 11- वृद्ध सेवा‘ परिग्रह त्याग में जीवनदर्शन6 12- प्राणायाम व ध्यान में जीवनदर्शन‘ 13- इन भावनाओं को जन सामान्य तक पहुुॅंचाने का उपाय‘ 14- उपसंहार
प्रस्तावना-वर्तमान के भौतिक युग में जहाॅं आधुनिकता का उदय होता जा रहा है वहीं मानव मूल्य अपन अवसान पर स्थित हैं। आज हर व्यक्ति खुद को और अपने सम्बन्धि जन को बड़ा आदमी बनते तो देखना चाहता हैंु लेकिन एक नेक आदमी बनते नहीं देखना चाहता ‘ यह एक सबसे बड़ी बिडम्बना हैं। यहाॅं दोष किसका है यह मैं नहीं कहना चाहता‘ परन्तु एक सत्य है कि जब तक व्यक्ति सात्विक है‘ तब तक समष्टि ‘यह सृष्टि ’ सात्विक है परन्तु जब मानव इकाई दूषित हो जायेगी तब सृष्टि भी विकराल रूप् धारण कर लेगी
आज हम जो जीवन जी रहे है। इसमें मानव मूल्यों का कोई मूल्य नजर नहीं आता है क्योंकि व्यक्ति नितात्त स्वार्थी लोभी और मायावी होता जा रहा है‘ औश्र हमें इसे सही करने की आवश्यकता है
जिससे हमारा समाज व राष्ट निरन्तर उत्थान को प्राप्त को सके।
पूज्य आचार्य श्री शुभचन्द्र महाराज ने अपने ज्ञानार्णव ग्रन्थ में जीवन के प्रत्येक पहलू को स्पर्श करने बाले मन्त्र लिखे हैं’ जिसके माध्यम से जीवन प्रशस्त बनाया जा सकता है। इसमें से कुछ बिन्दुओं पर हम यहाॅं चर्चा करने जा रहे हैं।
कृतिकार का व्यक्तित्व एक जीवनदर्शन –
आचार्य शुभचन्द्र महाराज का व्यक्तित्व भी अद्भुत जीवन दर्शन सिखलाता हैं’ यदि कोई व्यक्ति अपने जीवन में उनके व्यक्तित्व को धारण कर ले तो वह भी आचार्य शुभच्रद्र बन सकता है‘ लेकिन इसके लिए कुमार शुभचन्द्र जैसी तात्विक दृष्टि की आवश्यकता होगी‘ जैसा कि कुमार श1ुभचन्द्र के चाचा के द्धारा

शुभचन्द्र का बल देखकर और भयभीत होकर कि कहीं भविष्य में राज्य न छिन जाये ’उनके प्राण हरण करने की योजना बना ली‘ परन्तु कुमार शुभचन्द्र प्रतिकार स्वरूप् उनको दण्ड देने के विपरीत स्वयं दीक्षित हो गये और द्धादशांग मयी जिनवाणी के तत्वों का अवलोकन करने लगे। हम भी यदि परिवार व समाज में तुच्छ धन व परिग्रह के कारण अपन परिवार जनों से वैर न रखकर प्रेमभाव धारण करें और तत्वों के दर्शन में मन लगाये ंतो हम भी आचार्य शुभचन्द्र महाराज के मार्दव की पराकाष्ठता को प्राप्त कर सकते हैं।
पृष्ठ 24
मंगलाचरण में जीवनदर्शन –
मंगलाचरण करना परंपरा का निर्वहन एवं विनय का तो प्रतीक है ही परन्तु वहाॅं से संसारी प्राणी को जीवन दर्शन एवं पथ प्रदर्शन मिले ये बड़ा दुर्लभ होता है। आचार्य श्री ने यहाॅं पर जो मंगलाचरण किया है वह नमस्कारात्मक तो है ही पर जिसको नमस्कार किया है ऐसे परमात्मा के विशेषण के रूप् में ज्ञान लक्ष्मी और वीतराग लक्ष्मी के दृढ़लिंगन की जो व्यंजना की है वह अनय मताबलम्बियों के द्वारा निदर्शित परमात्मा के स्वरूप
का खंडन कर सन्मार्ग पर लगने को मार्ग प्रशस्त करती है। आचार्य श्री ने मंगलाचरण में ही अज्ञानता के साथ मिथ्यात्व का परिहार करने का भी उपक्रम किया है जो वर्तमान में अत्यावश्यक है क्योंकि आज व्यक्ति परमात्मा के सत्स्वरूप का जाने बिना ही अंध भक्ति में रत है‘ क्योंकि अन्य दर्शनों में तो स्त्री को परमात्मा की शक्ति के रूप् में एवं पुरूष को परमात्मा के रूप में बतलाकर उनके गुणें को गौण करके मा़त्र बाहा स्वरूप् एवं ईश्वर मानकर श्रद्धा‘ भक्ति‘ एवं पूजन की परिपाटी बतलाई जा रही हैं।
तात्पर्य यह है कि मंगलाचरण-
ज्ञानलक्ष्मीघनाश्लेषप्रभवानन्दनन्दितम्।
निष्ठितार्थमजं नौमि परमात्मानमव्ययम्।। सर्ग 1‘पृष्ठ 1
में ज्ञानलक्ष्मीघनाश्लेष पद कहा है वह व्यजित करता है कि भगवान से आत्यन्तिक रूप से श्लेषित रहने बाली शक्ति कोई साकार लक्ष्मी नहीं बल्कि निराकार ज्ञानयपी लक्ष्मी है इसलिए हमें साकार‘ परिग्रही लक्ष्मी के फेरे में ने पड़कर मिथ्यावर का परिहार करना चाहिए जो कि जैन समुदाय के साथ राष्ट् को भी सन्मार्ग प्रदान करता है।
एकत्व भवना जीवनदर्शन –
वैसे तो इस ग्रन्थ में वर्णित प्रत्येक शब्द और श्लोक परमोपकारी है तथापि बारह भावनाओं में से प्रत्येेक भावना हर व्यक्ति के लिए हितकारी है‘ फिर भी यदि कोई हमेशा एकत्व भावना को ध्यान में रखता है तो वह ज्यादा पाप नहीं करेगाा क्योंकि वर्तमान में व्यक्ति अर्थ के पीछे आॅंख मूॅंदकर दौड़ रहा है‘ वो शायद यह भूल जाता है कि मै। छोड़ता हूॅं उसी पापकृत्य का फल तो मुझे ही अकेले भोगना पड़ेगा’ जैसा कि पूज्य आचार्य श्री शुभचन्द्र महाराज ने कहा है कि –
स्हाया अस्य जायन्ते‘ भोक्तुं वित्तानि केवलम्।
न तु सोढुं स्वकार्योत्थं‘निर्दयां व्यसनावलीम्।। सर्ग 2 पृष्ठ 33 श्लोक 6
यह प्राणी भले बुरे कार्य करके जो धनोपार्जन करता है उस धन के भोगने को तो पुत्र मित्र आदि अनेक साथी हो जाते हैं‘ परन्तु अपने कर्मों से उपार्जन किए हुए निर्दय रूप् दुःखों के समूह को सहने के लिए कोई भी साथी नहीं आता। यह जीव अकेला ही सुख दुःख भोगता हे। क्योंकि एकत्व भावना कहती है कि जीव अकेले ही आता है और अकेले ही जाता है । आज समूचा देश और विश्व इसी अनभिज्ञता के कारण हर तरह के पाप कृत्य में लगा हुआ है‘ यअद व्यक्ति उपरोक्त बात को समझ ले तो धन के लिए ज्यादा पाप करना बंद नहीं तो कम तो कर ही सकता है।
अशुचि भावना में लोकधर्म –
आज समूचा राष्टृ अपवित्रता को आढ़ना आढ़कर पवित्रता का ढोंग रच रहा है। अशुचि भावना का ध्यान आता है कि हमारा ध्यान अभी शरीर में अटक कर भटका हुआ है । जिस शरीर को सजाने और सॅंवारने के लिए राष्ट् का हर व्यक्ति दीन दःखी एवं मूक
पशुओं के निर्मम बध से बनी प्रसाधन सामग्रियों का उपयोग कर रहा है‘ वह
वस्तुतः क्षण मात्र के लिए हामारा भ्रम है‘ क्योंकि शरीर तो स्वभाव से मैला ही ळै जैसाकि आचार्य महाराज ने भी कहा है-
कलेवरमिदं न स्याद्यदि चर्मावगुण्ठितम्।
मक्षिकाकृमिकाकेभ्यःस्यात्रातुंकस्तदा प्रभुः।।
सर्ग 2 श्लोक 7 पृष्ठ 38
कि यदि शरीर के उपर से चर्म निकाल दिया जोय तो इस शरीर को मक्खियों और काकों से नहीं बचाया जा सकता है।
तो इस प्रकार के इस शरीर को हम प्रसाधन सामग्रियों के द्वारा कितनी देर तक सा
फ रख सकते हैं।
ध्यान देने र्योग्य बात यह है कि हमारे उपयोग से ही निर्माण कार्य चलता है यदि हर समझदार व्यक्ति अशुचि भावना को समझकर जीव हत्या से बनने बाली इन सामग्रियों का उपयो न करे तो देश के कत्लखने स्वयं ही बंद हो जायेंगे।
क्योंकि प्राणियों की रक्षा करना भी एक लोक धर्म है औश्र एक जीवनदर्शन भी। आज कृष्ज्ञि प्रधान इस देश में जहाॅं गायों को माता मानकर पूजा जाता ळै वहीं गायों एवं अन्य पशुओं का बध अशुचि शरीर की इन्द्रियों को पुष्ट करने के लिए किया जा रहा है‘ यह बड़े दुःख का विषय है‘ इस पर हमें विचार करना चाहिए।
ध्यान में लोकधर्म –
आज मुट्ठी भर जैन समाज के अन्दर विघटन होती नजर आ रही है’ इसमें बहुतायत में कारण बन रहा है मुनियों का भृष्ट आचरण; एक तरफ तो आचार्य श्री विद्यासागर जी के शिष्य इस भृश्ट आचरण का विरोध कर रहे हे। और दूसरी तरफ कुछ भृष्ट मुनि परिग्रह रखने के बाद भी स्वयं को शुद्ध सिद्ध कर रहे है। और श्रावकों को यह कहकर शान्त कर देतें हैं कि तुम स्वयं को सॅंभालो मुनि तो अपने आप को सही कर लेंगे‘ परतु पूज्य शुभचन्द्राचार्य ने उन मुनियों को ध्यान का ही निषघ कर दिया आर्थात् ऐसे मुनि जो परिग्रह रखते हैं उन्हें उत्तम ध्यान नहीं हो सकता तो ये अपने परिणम कैसे सुधारेंगें। इस विषय के लिए उक्त श्लोक दृष्टव्य है-
स्ंगेनापि महत्वं ये मन्यन्ते स्वस्य लाघवम्।
परेषा संगवैकल्यान्ते स्वबुध्यैव वंचिताः।। सर्ग 4 श्लोक 33 पृ0 72
जो मुनि होकर भी परिग्रह रखते हैं औश्र उस परिग्रह से अपन महत्व मानते है। तथा अन्य कि जिनके परिग्रह नहीं है उनकी लघुता समझते हैं वे अपनी ही बुद्धि से ठगे गये है। और भी-
कीर्तिपूजाभिमानार्तैः लोकयात्रानुरंजितैः।
बोधचक्षुर्विलुप्तं यैस्तेषां ध्याने न योग्यता।। सर्ग 4 श्लोक 35 पृ0 72
जो मुनि कीर्ति प्रतिष्ठा और अभिमान के अर्थ में आसक्त हैं ’ दःखित हैं लो यात्रा से अनुरंजित होते हैं‘ अर्थात हमारे पास लोग आवें जावें जो ऐसी वांछा रखते हैं उन्होंने अपने ज्ञान रूपी नेत्र को नष्ट किया हे एसे मुनियों के ध्यान की योगयता नहीं सकती तो इस प्रकार के मुनि क्ीाी मुनिपने को प्रापत नहीं कर सकते ।
आहिंसा व्रत में जीवन दर्शन – आज देनिक उपयोग की छोटी- छोटी वस्तु से लेकर बड़ी-बड़ी वस्तुओं का निर्माण जिस तरीके से हो रहा है उसमें कहीं न कहीं जीव हिंसा का
संबन्ध जरूर मिल जायेगां यदि विशेषकर खाद्यपदार्थों एवं प्रसाधन सामग्रियों की बात करें तो सर्वाधिक जीव हिंसा का प्रयोग हो रहा हैं । यह बात न तो देश का व्यापारी समझ पा रहा है और न ही देश का नेता कि ज्यों-ज्यों देश में हिंसा बड़ती जायेगी वैसे-वैसे समाज पर प्राकृतिक संकट गहरे होते जायेंगे‘ क्योंकि पूज्य आचार्य कहते हैं कि एक जीव को मारने का पाप इतना होता है कि कुलाचल पर्वतों से सहित यदि सात द्वीपों की पृथ्वी भी यदि दान कर दी जाये तो भी एक प्राणी को मारने का पाप दूर नहीं किया जा सकता। तो फिर आज देश में जो इतने पशुओं
को मारा जा रहा ळै इसके पाप का परिणाम क्या होगा ये हमारे समाज और देश के हर व्यक्ति को सोचना पड़ेगा। दृष्टव्य है –
सप्तद्वीपवर्ती धात्रीं ’ कुलाचल समन्विताम्।
नैक प्राणिवधोत्पन्न दत्वा दोषं व्यपोहति।। सर्ग 8 श्लोक 34 पृ0 115
सत्य व्रत में जीवन दर्शन –
आचार्य शुभचन्द्र महाराज ने भी अन्य आचार्यों की भाॅंति सत्य को अहिंसा का पोषक बताकर हित‘मित और प्रिय वचन कहने का निर्देश किया है जिनमें कुछ विशेष बातें भी बताई हैं जिसमें सबसे पहले तो व्यक्ति को मौन रहने को कहा !िर जो वचन सन्देह रूप हों पापरूप् और ईष्र्या उत्पन्न कराने बाले हों उन्हें पूछने पर भी न कहने लोप होता हो उस जगह समीचीन धर्म किया और सिद्धान्त के प्रकाशन के लिए बिा पूछे विद्वान को बोलना चाहिए क्योंकि यह सत्पुरुषों का कार्य है।
धर्मनाशे कियाध्वंसे‘ सुसिद्धन्तार्थ विप्लवे ।
टपृष्टैरपि वक्तव्यः तत्स्वरूप् प्रकाशते।। सर्ग 9 श्लोक 16 पृ0 115
और जो वाणी लोक के कानों में बारबार पड़ी हुई विषम विष को उगलती हुई जीवों को मोहरूप करती है और समीचीन मार्ग को भुलाती है वह वाणी नहीं सर्पिणी है।
या मुहुर्मोहयत्येव‘ विश्रान्ताकर्णयोर्जनम्।
विषमं विषमुत्सृत्य साडवश्यंपन्नगी नगः।। सर्ग 9 श्लोक 16 पृ0 115
ब्रहाचार्य में जीवनदर्शन – ब्रहाचार्य व्यक्ति के जीवन में कितना आश्यक एवं महत्वपूर्ण है यह तो महापुरुषों के व्याख्यान और शास्त्रों के अध्ययन से पता चलता ही है साथ ही उनके जीवन आदर्शों से भी‘ परन्तु देश की नीति ही ऐसी है जो सब कुछ विपरीत कर रही है । आज स्कूलों से लेकर महाविद्यालयों एवं पत्र पत्रिकाओं में परिवार नियोजन की बात कही जा रही है जिसके लिए बाजार में गर्भनिरोधक पदार्थ उपलब्ध कराये जा रहे हैं इससे समाज में केवल अब्रहा का ही उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है। यदि विद्यालय और महाविद्यालयों में महापुरुषों के ब्रहाचार्य का एवं अब्रहा की हानियाॅं बताकर ब्रहाचर्य की बात सिखाई जाये तो शायद परिवार नियोजन के लिए इन भौतिक पदार्थों की आवश्यकता ही न पढ़े ।
मेरा ऐसा मानना है कि महाराज के कथनानुसार पाॅंचों पापों के त्याग रूप् पाॅंच व्रतों का अध्ययन यदि विद्यालयों में कराया जाता है तो हर समाज एवं देश का उत्थान संभव है।
सर्ग 11 पृ0 124
स्त्री स्वरूप – आचार्य महाराज ने 55 श्लोकों के माध्यम से स्त्रियों की निन्दा की है‘ परन्तु 3 श्लोकों में प्रशंसा भी की है‘ लेकिन प्रशंसनीय केवल वही हैं जो षट् कर्तव्यों में तत्पर हैं । इसी के साथ ही आचार्य महाराज ने स्त्री संसर्ग एवं मैथुनत्यागोपदेश संबंधि जो बातें कही हैं यदि कोई व्यक्ति अच्छे मन से अध्ययन कर ले तो इसके अन्दरी की वासनायें निश्चित रूप् से नाश को प्राप्त होंगी ।
वृद्ध सेवा – कल्याण के मार्ग को प्रशस्त करने के लिए आचार्य महाराज के द्वारा वृद्ध सेवा का विषय अद्वितीय रूप् से प्रतिपादित किया गया है । आचार्य कहते हैं-
लोकद्वय विशुद्धयर्थ‘ भावशृद्धयर्थमंजसा।
विद्याविनय वृद्धयर्थ‘ वृद्ध सेवैव शम्यते।। सर्ग 15 श्लोक 1 पृ0 ृ54
अनायास दोनों लाकों की सिद्धि के लिए ’ भावों की शुद्धता के लिए तथा विनय की वृद्धि के लिए वृद्ध पुरुषों की सेवा की ही प्रशंसाा की गई है।
परन्तु ये पूछा जाये कि वृद्ध कौन हैं उनका स्वरूप कहा है-
स्वतत्व निकषोद्भूतं ’ विवेकालोक वर्धितम्।
येषां बोधमयं चक्षुस्ते वृद्धा विदुषां मताः।।
जिनके आत्म तत्वरूप रूप कसौटी से उत्पन्न भेदज्ञान रूप आलोक से बढ़ाया हुंआ ज्ञानरूपी नेत्र है उनको ही विद्वानों वृद्ध कहा है। और ऐसे वृद्धों की सेवा साक्षात् माता के समान हित करने बाली है‘ औश्र आप्त वाणी के समान शिक्षा देने बाली है‘ तथा दीपक के समान पदार्थो को प्रकाशित करने बाली है।
इस तरह पूज्य गुरुदेव ने वृद्ध सेवा के द्वारा मुनियों की सेवा की तरफ ही इशारा किया है‘ जो कि मनुष्य के प्रज्ञा रूपी समुद्र को बढाने बाला है।
परिग्रह त्याग में जीवनदर्शन – यह व्रत विश्व के प्रत्येक व्यक्ति को निर्देशित करता है कि हमारे दुःखों की जड़ कहीं न कहीं परिग्रह ही है । जिसके ास जितना ज्यादा परिग्रह होता है वह उतना ज्यादा दुःखी होता है ‘ इसके लिए आचार्य लिखते हैं-
वजातीयैरपि प्राणी‘ ‘ सद्योडभिद्रूयते धनी ।
यथात्र सामिषः पक्षी पक्षिभिर्बद्ध मण्डलैः।। सर्ग 16 श्लोक 37 पृ0 170
कि जिस प्रकार किसी पखी के पास माॅंस का पिण्ड हो तो वह अन्यान्य मांस भक्षी पक्षियों के द्वारा पीड़ित व दुःखित किया जाता है ‘ उसी प्रकार धनाढ्य पुरुष भी अपनी जाति बालों से दुःखित व पीड़ित होता है। अर्थात् धनी से लाग धन की याचना करते हैं तो वह दुःखी हो जाता है।
यदि कल्याण के माग्र चलना है तो परिग्रह को कम करते हुए त्याग करना पड़गाा क्योंकि आचार्य ने परिग्रह त्याद न करने बाले मनुष्य को कायर व नपुसंक कह है क्योंकि ज बवह एक ही शत्रु से नहीं लड़ पा रहा है तो आगे कर्मों की सेना से कैसे लड़ेगा । दृष्टव्य है –
ब्हानपि चयः संगान्परित्यक्तुमनीश्वरः।
स क्लीबः कर्मणां सैन्य कथमग्रे हनिष्यति।। सर्ग 16 श्लोक 27 पृ0 168

प्राणायाम व ध्यान में जीवनदर्शन –
हम अपने समाज व देश को उन्नत बनाना चाहते हैं‘ इसके लिए स्वस्थ मस्तिष्क एवं शरीर की आवश्यकता होती है जो कि आज के समय में दुर्लभ होता जा रहा है‘ क्योंकि व्यक्ति अपने आपको सुखी बनाना चाहता है लेकिन सही मार्ग से नहीं बल्कि केवल धन के द्वारा जबकि यह पूर्णतः मिथ्या है कि कोई धन से सुखी हो सकता है। फिर व्यक्ति धन के लिए चैबीसों घण्टे चिन्तातुर रहता है फलतः वह मस्तिष्क के साथ साथ शरीर को भी अस्वस्थ कर लेता है। शरीर की अस्वस्थता में कामवासना भी एक मुख्य कारण है अतः आचार्य महाराज ने ग्रन्थ के अन्त में प्राणाययम की विधि बतलाई है। प्राणायाम से व्यक्ति अपनी कामवासनाओं को शान्त कर सकता है‘ जिससे इसका धम्र्यध्यान में मन लगेगा और पापों से बचेगा और इन दोंनों से व्यक्ति स्वस्थ व मस्तिष्क प्राप्त करके समाज व देश को उन्नत बना सकेगा।

इन भावनाओं को जन सामान्य तक पहुॅंचाने का उपाय –
यदि हम इन सभी तथ्यों को राष्टीय स्तर पर देखना चाहते है। औश्र जन सामान्य तक पहुॅंचाना चाहते हैं तो इन सभी तथ्यों को हमें स्कूली शिक्षा के माध्यम से ही व्यक्ति के जीवन में इस प्रकार के संसार डाले जा सकते है। आज विद्यालय एवं महाविद्यालयीय पाठ्क्रमों में जितनी भी ज्ञान की बातें हैं। बो प्रायः हिन्दू धर्म को लेकर लिखी गयी हैं ’ यदि जैनदर्शन की 12 भावनाओं में से एकत्व’ अशुचि और संसार भावना के साथ पाॅंच पापों का समावेश कर दिया जोये बालकों के मल में पाप के प्रति ग्लानि तो उत्पन्न हो ही सकती है जो कि अच्छे समाज व राष्ट के निर्माण की प्रथम सीढ़ी हो सकती है।
उपसंहार – व्यष्टि से समष्टि का स्वरूप निर्मित होता है। प्रत्येक व्यक्ति इस देश की इकाई है और उसमें से जैन की इकाई ही इस पथ पर अग्रसर हो जाये तो धीरे धीरे यह ग्रन्थ पूरे देश का हितकारक हो सकता है।
यदि गौर किया जाये तो आचार्य महाराज के द्वारा कथित प्रत्येक श्लोक विश्व के प्रत्येक समाज के प्रत्येक व्यक्ति को दोंनों लोकों में सुख शांति का मार्ग प्रशस्त कर कल्याण की ओर निर्देशित करता है‘ परन्तु हमने कुछ ही बिन्दु यहाॅं पर प्रस्तुत किये हैं। यदि सुधीजन इस ग्रन्थ का स्वाध्याय करते हैं तो यह उनके जीवन को अवश्य ही प्रभावित करेगाा ऐसा मेरा मानना है‘ औश्र मैं चाहता कि आप सभी इसका स्वाध्याय करें एवं इसके सिद्धान्तों का घर‘ परिवार समाज एवं देश में प्रसारित करने का उद्यम करें।
मुनि श्री क्षमासागर जी की पॅंक्तियोॅं भी मननीय है। –
माना कि हममें
भगवान बनने की
योग्यता है‘
प्र इस बात पर
ठतना अकड़ते क्यों हैं?
क्योंकि वह तो चींटी में भी है‘
यहाॅं सबाल सिर्फ
योग्यता का नहीं‘
हू ब हू होने का है‘
भगवान् मानने या मनवाने का नहीं
स्वयं भगवान् बन जाने का है
हम अपने को
जरा उॅंचा उठायें
इस बार ना सही भगवान्
एक बेहतर
इन्सान बन जायें।

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