प्रस्तावना –
भाव प्राणी की एक मनोवैज्ञानिक दशा है जिसे मनोवैज्ञानिक भाषा में विचार कर सकते हैं लेकिन विचार शब्द भाव का पूर्णत: पर्याय शब्द नहीं कहा जा सकता ग्रंथराज राजवार्तिक में “भवनं भवतीति भावः” होना मात्र या जो होता है सो भाव है, ऐसा कहा है।धवला जी ग्रंथ के अनुसार “भवनं भावः” अथवा “भूतिर्भाव:” इस प्रकार भाव शब्द की व्युत्पत्ति की गई है।
भाव शब्द को एक ही अर्थ में समझना भूल होगी। भिन्न-भिन्न आचार्यों ने भिन्न-भिन्न ग्रंथों में भिन्न भिन्न प्रकार से भिन्न भिन्न अर्थों में प्रतिपादित किया है जेल से गुड पर्याय के अर्थ के रूप में धवला जी में “भावो खलु परिणामो” अर्थात पदार्थों के परिणामों को भाव कहा है। इसी प्रकार गोम्मटसार जीवकाण्ड में भी “भावःचित्परिणामः” मतलब चेतन के परिणाम को भाव कहते हैं , इस प्रकार वर्णित किया है।
भाव शब्द की व्याख्या कर्मोदय सापेक्ष जीव परिणाम के अर्थ में भी किया गया है।सर्वार्थसिद्धि जी ग्रन्थ में आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने प्रथम अध्याय के आठवें सूत्र की टीका के अंतर्गत ” भावः औपशमिकादि लक्षणः” अर्थात भाव से औपशमिकादि भावों को ग्रहण किया गया है। इन्ही भावों की आगे विशेष चर्चा की जाएगी।
इसके अलावा भाव को चित्तविकार के अर्थ में, आत्मा के शुद्ध भाव के अर्थ में तथा नव पदार्थ के अर्थ में आदि अन्य अर्थों में लिया गया है।
पाँच भावों का विवेचन-
आचार्य उमा स्वामी महाराज ने तत्वार्थ सूत्र जी ग्रंथ के द्वितीय अध्याय के प्रथम सूत्र में स्पष्ट रूप से पांच भावनाओं को निम्न प्रकार से उल्लेखित किया है –
“औपशमिकक्षायिकौभावौमिश्रश्चजीवस्यस्वतत्वमौदयिकपारिणामिकौ च” अर्थात औपशमिक,क्षायिक,क्षायोपशमिक, औदयिक, और पारिणामिक ये जीव के स्वतत्व या भाव हैं।
जैसा कि मैंने पहले भी कहा कि भाव और विचार पर्याय नहीं हो सकते प्रथम चार भाव कर्मो दे सापेक्ष निमित्त व 7 माने गए हैं और अंतिम भाग भाव योग्यता की प्रधानता से माना गया है लेकिन विचारों का प्रादुर्भाव भाव के निमित्त से मान सकते हैं जैसे कि सम्यक्त्व एक भाव है तथा सम्यक्त्व भाव के निमित्त से व्यक्ति के अंदर तदनुरूप विचार उत्पन्न होते हैं। उसी प्रकार अलग अलग भावों के निमित्त से प्राणी के अंदर अलग-अलग विचार उत्पन्न होते हैं ऐसा माना जा सकता है।
भावों के भेद – मूल सूत्र कार आचार्य उमा स्वामी महाराज ने तत्वार्थ सूत्र ग्रंथ में 5 भावों के भेद बता
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