‘रयणकंडो’ आचार्य श्री वसुनन्दी जी महाराज द्वारा विरचित एक सूक्तिकोश है। यह ग्रन्थ मूलत: प्राकृत भाषा में निबद्ध है, पर साथ ही ग्रन्थ की सम्पादिका पूज्य आर्यिका श्री वर्धस्वनन्दनी माताजी ने समय की मांग को देखते हुए इसे हिन्दी एवं अंग्रेजी अनुवाद के साथ प्रस्तुत किया है, जिससे सुधी पाठकों को तीन भाषाओं का परिचय सुलभ हो गया है। इनमें से प्रथम भाषा प्राकृत को न केवल ‘रयणकंडो’ की अपितु सम्पूर्ण जैनागम की मूलभाषा होने का गौरव प्राप्त है। द्वितीय क्रम पर हिन्दी अनुवाद को रखा गया है और मेरा मानना है कि विज्ञ पाठकों को सर्वाधिक लाभ इसी से हुआ होगा, क्योंकि वर्तमान में हिन्दी भाषी श्रावक ही सर्वाधिक दृष्टिगोचर होते हैं। हिन्दी अनुवाद के उपरान्त जो अंग्रेजी अनुवाद दिया है वह पूजनीय माताजी के बहुभाषाविद होने को तो सूचित करता ही है, साथ ही देश-विदेश में विद्यमान अंग्रेजी पाठकों के लिए भी ग्रन्थ की उपयोगिता को सिद्ध करता है।
सामान्यतया ग्रन्थ का अवलोकन करने पर बहुत से वाक्य मात्र वाक्यवत् प्रतीत होते हैं, परन्तु उन वाक्यों को ध्यान से पढ़ा जाये या फिर उन पर ध्यान किया जाये अर्थात् चिन्तन का विषय बनाया जाए तो वे ही वाक्य जीवन-परिवर्तन कर देने वाले अनुपम सूत्र बन जाते हैं। और उनका अनुपम होना भी सहज सम्भाव्य है क्योंकि वे राह चलते किसी जनसामान्य के कथनमात्र नहीं हैं, अपितु एक ऐसे ऋषिप्रवर की लेखनी से प्रसूत मोती हैं जिन्होंने स्वयं अपने जीवन को मानव-जीवन के उत्कर्ष तक पहुँचाया है।
‘सुष्ठु उक्ति: इति सूक्ति:’ अर्थात् अच्छे और सुन्दर ढंग से कही गई बहुत अच्छी बात जिसमें कम शब्दों में अत्यन्त गूढ भाव समाहित हों, सूक्ति कहलाती है। प्रस्तुत ग्रन्थ में लिखित सम्पूर्ण सूक्तियाँ मानव-जीवन को निश्चित रूप से प्रभावित करनेवाली हैं, क्योंकि इनमें मानव-जीवन के प्रत्येक पहलू हो ग्रहण कर लिया गया है। मानव-जीवन की पर्याय के रूप में कोई गृहस्थ हो या योगी, गुरु हो या शिष्य, पूजक हो या पूज्य, राजा हो या रंक, पिता हो पुत्र या फिर मंत्री, राजा, पण्डित, योद्धा इत्यादि प्रत्येक व्यक्ति अपने आप को इन सूक्तियों में देख सकता है। मानव-जीवन के प्रत्येक पहलू को तो सम्पूर्ण ग्रन्थ पढक़र ही जाना जा सकता है तथापि कतिपय पहलुओं पर यहाँ विमर्श किया जा रहा है-
माता-पिता :-
यह तथ्य सर्वविदित है कि मानव-जीवन का आरम्भ माता-पिता से ही होता है। पूज्य आचार्यश्री ने भी इस बात को प्रमाणित करते हुए लिखा है कि-
‘‘कस्स वि यालम्मि खेत्तम्मि य जणगं विणा पुत्तो असंभवो।’’
अर्थात् किसी भी काल और क्षेत्र में पिता के बिना पुत्र सम्भव नहीं है। माता-पिता जैसे महत्त्वपूर्ण विषय पर अपनी लेखनी का सुन्दर प्रयोग करते हुए आचार्यप्रवर ने लिखा है-
‘‘मादु पिदु वि इयर-देवता।’’
अर्थात् माता-पिता भी इतर देवता हैं। यद्यपि जैनधर्म में माता-पिता देवत्वबुद्धि से पूज्य नहीं हैं, तथापि उनका सम्मान किसी तरह कमतर नहीं आँका जा सकता है। अत: सम्पादक जी ने इसे इंगलिश ट्रांसलेशन में क्कड्डह्म्द्गठ्ठह्लह्य ड्डह्म्द्ग ड्डद्यह्यश द्यद्बद्मद्ग त्रशस्र लिखकर विषय को बिलकुल स्पष्ट कर दिया है। माँ के विषय में एक बहुत ही सुन्दर सूक्ति ग्रन्थ में प्राप्त होती है-
‘‘मादु-हियं णवणीदेण अइमिदुलं।’’
माता का हृदय मक्खन से भी अधिक कोमल होता है। इसका श्वठ्ठद्दद्यद्बह्यद्ध ञ्जह्म्ड्डठ्ठह्यद्यड्डह्लद्बशठ्ठ भी बड़ा रोचक है-
॥ह्वह्म्ह्ल शद्घ ड्ड द्वशह्लद्धद्गह्म् द्बह्य ह्यशद्घह्लद्गह्म् ह्लद्धड्डठ्ठ ड्ढह्वह्लह्लद्गह्म्.
किसी भी बालक की प्रथम पाठशाला यदि कहीं है तो वो है माँ की गोद एवं बालक का प्र्रथम गुरु होती है उसकी माँ। वास्तव में माता के द्वारा प्रदत्त संस्कार ही मानव-जीवन की आधारशिला होते हैं। महाभारत में उल्लिखित अर्जुनपुत्र अभिमन्यु एवं द्रौपदी का कथानक जगत्प्रसिद्ध है। जैनदर्शन में भी तीर्थङ्कर के गर्भ में आने से पूर्व माता को सोलह प्रकार के मंगल स्वप्न दिखाई देना एवं गर्भकाल में ५६ कुमारियों द्वारा माता के साथ धार्मिक चर्चाएँ करना इस बात को प्रमाणित कर देता है कि जीवन में माँ का महत्त्व सर्वोपरि है। माँ केवल जन्म ही नहीं देती, अपितु जन्म को सार्थक बनाने की शिक्षा भी देती है। सूक्तिकोश में लिखा है-
‘‘ण जम्मेव मत्तं सुसंक्कारो वि देदि ते सु_ु मादु पिदु।’’
अर्थात् मात्र जन्म ही नहीं अपितु जो सुसंस्कार भी देते हैं वे श्रेष्ठ माता-पिता हैं। माता के साथ ही पिता का भी महत्त्व घोषित करते हुए लेखक ने लिखा है कि-
‘‘के वि जणा परमप्पाणं वि पिदा मण्णदे।’’
अर्थात् कुछ लोग परमात्मा को भी पिता मानत हैं। वहीं कुछ लोग-
‘‘ते जणा वि णो दुल्लहा लोए जे जणगं वि परमप्पा इव मण्णदे।’’
अर्थात् जो लोग पिता को भी परमात्मा के समान मानते हैं, वे लोग भी इस संसार में दुर्लभ नहीं हैं।
संस्कार/संस्कृति
मानव-जीवन को सफल बनाने के लिए अच्छे संस्कारों का होना नितान्त आवश्यक है। संस्कार की परिभाषा बताते हुए आचार्य महाराज लिखते हैं-
‘‘चित्तम्मि गुणवासणं णाम संक्कारो।’’
अर्थात् चित्त में गुणों की वासना का नाम संस्कार है। संस्कारों से संस्कृति का घनिष्ठ सम्बन्ध है। जिस संस्कृति में अच्छे संस्कार पल्लवित और पुष्पित होते हैं वही संस्कृति चिरस्थायी बनती है। आचार्य महाराज ने भी लिखा है-
‘‘संस्कारीणं किदी हु सक्किदी।’’
अर्थात् संस्कारियों की कृति ही संस्कृति है। अथवा गतकाल के सज्जनों द्वारा निष्पन्न सुकृति संस्कृति है। संस्कृति भी मानव जाति के प्राण की तरह है। संस्कृति महानिधि के समान प्राण श्रेष्ठ है। पुरातन संस्कृति और पुरातत्त्व की रक्षा करनी चाहिए। कई वीर पुरुषों ने अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए प्राणों का परित्याग कर दिया।
हम सभी लोग श्रमण संस्कृति के अंग हैं और यह संस्कृति मानव-जीवन को उत्थान के चरम तक पहुँचाने वाली संस्कृति है, इसमें कोई संशय नहीं है। आचार्य महाराज का कहना है-
‘‘सगदेसस्स य उण्णदीए समणो समिगो य सच्चजुदो होदव्व।’’
अर्थात्् स्वयं और देश की उन्नति के लिए श्रमण और श्रमिक को सत्ययुक्त होना चाहिए। अत: संस्कृति का मानव-जीवन के उत्थान में महत्त्वपूर्ण स्थान है।
आत्महितैषिता
श्रमण संस्कृति से ही जुड़ी एक और अहम बात की ओर आचार्यश्री ने पाठकों का ध्यान आकृष्ट किया है, वह है आत्महित। जैनदर्शन की दृष्टि में इस मानव पर्याय का सर्वोत्कृष्ट उपयोग यदि है तो वह है आत्महित में इसे लगाना। आगम के अनुसार मात्र मनुष्य पर्याय में ही सकल संयम को ग्रहण करके पूर्णतया आत्महित की साधना की जा सकती है। यदि मानव पर्याय पाकर आत्महित की ओर रंचमात्र भी प्रवृत्ति न हो तो मानव-जीवन व्यर्थ है। दृश्यमान भौतिक पदार्थों में ही उलझे रहना अथवा पर्यायबुद्धि के द्वारा निज चेतनस्वरूप का आभास भी न होना, यह मानव-जीवन का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। रयणकंडो में लिखा है-
पडिच्चा सव्वाणि सत्थाणि जदि आदहिदस्स मग्गं ण रोचदे तहा हु सव्व णिरत्थगं।
सम्पूर्ण शास्त्रों को पढक़र भी यदि आत्महित का मार्ग नहीं रुचता, तो सब निरर्थक है।
अब प्रश्न आता है कि आत्महित के लिए क्या किया जाये? तो ग्रन्थकार ने इसका उत्तर इस तरह दिया है-
सम्मत्ताइ रयणत्तयं परमप्पसिद्धीए पम्म रसायणं।
सम्यक्त्वादि तीन रत्न परमात्मसिद्धि के लिए परम रसायन हैं। ये तीन रत्न क्रमश: सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र हैं। सम्यक्त्व के बिना कोई भी सिद्धि को प्राप्त नहीं कर सकता है और जो जिनेन्द्र देव, जिनवाणी, जिनधर्म व तपस्या में आसक्त है, वह सम्यग्दृष्टि है ऐसा ग्रन्थकार का कथन है। वास्तव में सम्यग्दृष्टि ही धर्म का आधार है और धर्म सुख का आधार है। यदि जीव को सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाए, तो उसका ज्ञान तो स्वयमेव सम्यक् हो जाता है। उसके लिए पृथक् पुरुषार्थ की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान का अविनाभावी है। यदि गृहस्थों की बात की जाए तो उनके सम्यक्चारित्र का सद्भाव भले ही न पाया जाता हो तथापि उनका दायित्व है कि वे अपनी जीवनचर्या को इस तरह विकसित करें कि सम्यक्त्व रूपी रत्न तो उन्हें प्राप्त हो सके।
इस प्रकार ग्रन्थकार ने मानव-जीवन के उत्थान में जो निमित्त हैं, ऐसे पाँच सौ से अधिक विषयों पर अपनी लेखनी चलाई है, वहीं मानव-जीवन के पतन में जो कारण हैं, उनसे सावधान रहने की भी प्रेरणा दी है। जैसे किसी भी कार्य में अति कार्यनाश का कारण बनती है, इस बात की ओर इंगित करते हुए यशस्वी लेखक ने लिखा है-
‘‘पायसो अदि इदीए कारणं।’’
प्रायश: अति इति का कारण है। अतिघर्षण (रगड़) से चन्दन में भी अग्नि उत्पन्न हो जाती है। अतिपरिचय से अवज्ञा होती है। अतिभार से पुरुष दु:खी हो जाता है। अत: अति सदा दोषों का घर है। संस्कृत साहित्य में यह श्लोक बहुत प्रसिद्ध है-
अतिरूपेण वै सीता चातिगर्वेण रावण:।
अतिदानाद् बलिर्बद्धो ह्यति सर्वत्र वर्जयेत्॥
अर्थात् अतिसुन्दर होने के कारण सीता का हरण हुआ था, अतिमानी होने से ही रावण विनाश को प्राप्त हुआ, अतिदान के कारण बलि को बँधना पड़ा अत: अति को सर्वत्र त्यागना चाहिए।
कलह से सावधानी
हम देखते हैं कि मनुष्य जब गृहस्थ बनकर जीवन यापन करता है, तो प्राय: उसका सामना छोटी-मोटी तकरारों से होता रहता है। घर हो या ऑफिस, मन्दिर हो या खेल का मैदान, यदि किसी के विचार हमारे विचारों से जरा भिन्न क्या हुए, हम अपने शब्दों का सन्तुलन खो देते हैं और शब्दों का यही असन्तुलन तकरारों को जन्म देता है। ये तकरारें जब कलह का रूप धारण कर लेती हैं तो जीवन की शान्ति को भङ्ग कर देती हैं। इस सन्दर्भ में भी ग्रन्थ में दो सूक्तियाँ प्राप्त होती हैं-
‘‘कलहेण णस्सदि गेहं परिवारो समाजो वा।’’
अर्थात् कलह से गृह, परिवार और समाज नष्ट हो जाता है। दूसरी सूक्ति बड़ी मार्मिक है-
‘‘अण्णाणं कलहकारणेण कल्लाणं कहं संभवं।’’
जो अन्यों के लिए कलह का कारण है, उससे कल्याण कैसे सम्भव है? अत: यदि हमें सुकूनभरा जीवन चाहिए तो कलह के कारणों से बचना होगा और ऐसा हम अपनी वाणी का सही प्रयोग करके ही कर सकते हैं। लोक में पुद्गल के अनन्त परमाणु हैं और वाणी अर्थात् शब्द भी पुद्गल की ही पर्याय है। ये शब्द वर्गणाएँ अच्छे और बुरे दोनों रूप में सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त हैं। अब यह हम पर निर्भर करता है कि हम इन शब्दों के माध्यम से वाणी का प्रयोग वीणा की तरह करते हैं या फिर बाण की तरह। यदि वाणी को वीणा की तरह प्रयोग
किया जाए तो निश्चित ही सभी हमारे मित्र होंगे और जीवनयात्रा सुखद बन जाएगी और अगर वाणी को बाण की तरह प्रयोग किया जाएगा तो निश्चित ही युद्ध होंगे, युद्ध का परिणाम केवल विनाश है।
इसी प्रकार सांसारिक भोगों के प्रति सचेत करते हुए आचार्यप्रवर ने लिखा है-
‘‘सव्वदा भुंजमाणं मेरु इव कोसं वि खीयदे।’’
हमेशा भोगते रहने पर मेरु के समान कोष भी क्षीण हो जाता है। भोगों का नियम से वियोग होता है। भोग भोगने से नियम से पुण्य क्षीण होता है। इस पर सुधी श्रावकों का प्रश्न हो सकता है कि क्या सभी को भोग छोडक़र योगी बन जाना चाहिए? इसका समाधान ग्रन्थ में दिया है कि नहीं, भोग तो रोग और योग दोनों का कारण है। भोग सर्वथा हेय नहीं होते हैं, किन्तु उसकी निस्सीम आकांक्षा हेय है। जैसा कि लिखा है-
‘‘सवत्था ण भोया हेया होंति णवरि ता णिस्सीमा कंखा हेया।’’
प्रस्तुत आलेख के विषय का द्वितीय पक्ष है रयणकंडो में नैतिक आचरण। वस्तुत: कोई भी नीतिग्रन्थ या सूक्तिकोश हो, उसका प्रत्येक कथन नैतिक आचरण से जुड़ा होता है। इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि लोक में व्याप्त नैतिक आचरण जब किसी विचारक की अनुभूति का विषय बनते हैं, तो उसकी लेखनी से प्रसूत होकर वे ही सूक्तियाँ या नीतिवाक्य बन जाया करते हैं। यही बात रयणकंडो पर भी लागू होती है। इस कोश में लिखित प्रत्येक सूक्ति प्रबुद्ध लेखक की चिन्तन की गहराइयों का प्रतिफल है। ग्रन्थ में लेखक ने उत्साह, उपकार, संयम, अभ्यास, अतिथि-सम्मान, अहिंसा, आस्तिक्य, आशीर्वाद, चिन्तन, पुरुषार्थ आदि अनेक विषयों पर अपने उच्च विचारों को शब्दों में ढाला है, जो नैतिक आचरण के अंश हैं। नैतिक आचरण ही है जो हमें मनुष्यत्व प्रदान करता है। मनुष्य शब्द का अर्थ ही है कि मत्वा सीव्यति कर्माणि इति मनुष्य: जो कर्तव्याकर्तव्य के विवेक से सहित होकर कर्म करता है, वह मनुष्य कहलाता है। नीतिकार श्री भर्तृहरि ने तो यहाँ तक लिख दिया है कि-
साहित्यसङ्गीतकलाविहीन: साक्षात्पशु: पुच्छविषाणहीन:।
तृणं न खादन्नपि जीवमानस्तद्भागधेयं परमं पशूनाम्॥
अर्थात् जो व्यक्ति साहित्य, सङ्गीत तथा कला से रहित है, वह साक्षात् पशु ही है। अन्तर केवल इतना है कि पशु के पूँछ और सींग होते हैं और इसके नहीं। उस पर भी यह घास नहीं खाकर जीवित है, यह पशुओं के सौभाग्य की बात है। लोक में ऐसे भी लोग देखे जाते हैं जो नियमों को तोडऩे के लिए ही बने होते हैं। नीति की बातें उनके लिए बिलकुल बेकार होती हैं। परन्तु ऐसे लोग न केवल अपने जीवन का पतन करते हैं, वरन् उनसे प्रभावित होने वाले सम्पूर्ण मानव समाज के विकास को प्रभावित करते हैं। सामाजिक प्राणी होने के नाते हमारा दायित्व है कि हम समाज में ऐसी परिस्थितियों को पलने-बढऩे से रोकें जो सम्पूर्ण मानव जाति के लिए खतरा हैं।
अन्त में बस इतना ही लिखना है कि यह ग्रन्थ रत्नों का पिटारा है। इसमें उल्लिखित प्रत्येक सूक्ति रत्न के समान है। इनमें से जितने रत्नों का लाभ हम अपने जीवन में उठा सकें, उतना ही श्रेयस्कर है। जैनं जयतु शासनम्।
रयणकंडो / सू. १०२९ / पृ. १६४
रयणकंडो / सू. १०३६ / पृ. १६५
रयणकंडो / सू. १०३७ / पृ. १६५
रयणकंडो / सू. १०३५ / पृ. १६५
रयणकंडो / सू.१०२७ / पृ. १६४
रयणकंडो / सूक्ति २६०१ / पृष्ठ ४२०
रयणकंडो / सूक्ति ३२२८ / पृष्ठ ५३४
रयणकंडो / सूक्ति २२३३ / पृष्ठ ३५८
रयणकंडो / सूक्ति २२३६ / पृष्ठ ३५८
नीतिशतकम् / भर्तृहरि:
मकान नं. २, डिस्पेंसरी के पास
मदनपुर खादर, सरिता विहार, नई दिल्ली-७६
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