पूज्य आचार्य अमृतचन्द्र की दृष्टि एक विलक्षण प्रतिभा से युक्त थी। आचार्य भगवन्त कुन्दकुन्द के लगभग 1000 वर्ष पश्चात् उनके आध्यात्मिक ग्रन्थ समयसार प्रवचनसार और पंचास्तिकाय की टीका यदि आचार्य अमृमचन्द्र ने नहीं की होती तो आचार्य कुन्दकुन्द के रहस्य को समझना बहुत कठिन हो जाता। आचार्य कुन्दकुन्द के अन्तस्तत्व को आचार्य अमृतचन्द्र ने जिस सूक्ष्म अन्वेषणता और गाम्भीर्य से स्पष्ट किया है वह अनुपम, अतुल्य और अनोखा है। अध्यात्मवेत्ता विद्वानों में आचार्य कुन्दकुन्द के पश्चात् यदि आदरपूर्वक किसी का नाम लिया जा सकता है तो वे आचार्य अमृतचन्द्र सूरि ही हैं। उनकी टीकाओं और मौलिक ग्रन्थों को देखकर पता है कि वे कितने निस्पृही और आध्यात्मिक आचार्य थे। संस्कृत काव्य रचनाकारां में महाकवि कालिदास के ग्रन्थों के रहस्योद्घाटक टीकाकार मल्लिनाथ का जो स्थान है वही स्थान आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों के टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्र का है। निश्चित रूप से आचार्य अमृतचन्द्र महान् व्यक्तित्व के धनी थे।
पूज्य आचार्य अमृतचन्द्र ने मुनिधर्म के विषय में प्रवचनसार के चारित्राधिकार एवं समयसार की टीका में विस्तृत व्याख्या की है। आचार्य भगवन्त कुन्दकुन्द के अभिप्राय की सांगोपांग सुन्दर व्याख्या पूज्य आचार्य अमृतचन्द्र ने की है एवं अपने मौलिक ग्रन्थ पुरूषार्थ सिद्धयुपाय के प्रारम्भ एवं अन्त के श्लोकों में भी मुनिधर्म का वर्णन किया है। उन्होंने मुनियों की वृत्ति को सम्पूर्ण लोक से विलक्षण अलौकिकी वृत्ति के धारी कहा है।
अनुसरतां पदमेतत् करंबिताचारनित्यनिरभिमुखा।
एकान्तविरतिरूपा भवति मुनीनामलौकिकी वृत्तिः।। (पु.सि.उ. श्लोक 16)1
अर्थ-रत्नत्रय रूप पदवी का अनुशरण करने वाले अर्थात् रत्नत्रय को प्राप्त हुए मुनियों की वृत्ति पापक्रिया मिश्रित आचारां से सर्वथा परांगमुख तथा पर द्रव्यों से सर्वथा उदासीन रूप लोक से विलक्षण प्रकार की होती है।
ंमुनि अर्थात् आत्म मनन में लीन रहने वाला या संसार से मौन रहने वाला मुनि कहलाता है। धर्म शब्द के कई अर्थ शास्त्रों में कहे गये हैं।
चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समोत्ति णिदिट्ठो।
मोहक्खोह विहीणो परिणामो अप्पणो हु समो।। (प्रवचनसार अ.01,गा.07)2
अर्थ-अपने स्वरूप का आचरणरूप जो चारित्र है वह धर्म है अर्थात् जो वस्तु का स्वभाव है वह धर्म है। मोह और क्षोभ से रहित आत्मा का परिणाम सम भाव है वह धर्म है। अभिप्राय यह है कि वीतराग चारित्र, निश्चय चारित्र, वस्तु का स्वभाव, समभाव, धर्म ये सब एकार्थवाचक हैं।
इसप्रकार मुनिधर्म निर्दोष पूर्ण चारित्ररूप सर्वथा त्यागरूप होता है। मुनियों का त्याग मन वचन काय कृत कारित अनुमोदना इन नव भेदों से ही होता है। इसलिए वहां अत्यन्त मंदरूप सकषाय आस्रव होता है। आगे चलकर ईर्यापथ आस्रव होने लगता है। इसलिए मुनियों की प्रवृत्ति, उनके महाउज्ज्वल परिणाम, लोक से उत्तर और चमत्कार उत्पन्न करने वाले होते हैं। मुनियों के परिणाम सदा निर्मल एवं ध्यानस्थ रहते हैं। मुनिमहाराज न किसी पर रोष करते हैं न किसी पर प्रेम करते हैं। जो कटुवचन कहते हैं उन्हें भी वे वीतराग परिणामां से देखते हैं और जोउनकी पूजा करते हैं उन्हें भी वे उसी वीतरागदृष्टि से देखते हैं। न उन्हें तलवार प्रहार से भय है और न उपासना से अनुराग है जगत् के समस्त पदार्थो में उदासीनता है। त्रस और स्थावरों की सदा रक्षा करते हैं। अयाचकवृत्ति से आहार ग्रहण करते हैं, चाहे कितने ही दिन आहार क्यों न मिले, परन्तु वे अयाचकवृत्ति एवं निरंतराय रूप से ही उसे लेंगे, अन्यथा कदापि नहीं। कितनी ही कठोर शारीरिक बाधा क्यों न हो, वे कदापि किसी से उसे दूर करने के लिए नहीं कहते और न स्वयं दूर करते हैं। बाह्य में नग्न दिगम्बर स्वरूप द्वारा अंतरंग में ध्यान द्वारा सदा कर्मों को नष्ट करते रहते हैं। ध्यान की सिद्धि और वृद्धि के लिए कभी शीतकाल में नदी के किनारे ध्यान में मग्न हो जाते हैं और कभी सूर्य के प्रचण्ड आताप से तपने वाली ग्रीष्म ऋतु में अग्नि में दिये हुए लोहे के समान तपे हुए उन्नत पर्वत की चोटी पर ध्यान लगाते हैं। कोई कितने ही घोर उपसर्ग क्यों न करें उनका परिणामरूपी सुमेरू आत्मध्यान से रंचमात्र भी विचलित नहीं होता और न उपसर्ग करनेवाले पर रंचमात्र खेद प्रगट करते हैं किन्तु समझते हैं कि कर्मो का भार हलका किया जा रहा है। वास्तव में मुनि महाराज कर्मो से युद्ध करते हैं। जिस प्रकार एक राजा अनेक योद्धाओं से बल से दूसरे राजा पर विजय पाता है उसी प्रकार श्री मुनिराज पंच महाव्रत, पंच समिति, तीन गुप्ति, इन्द्रिय दमन, कषाय निग्रह, दसधर्म आदि अनेक महापराक्रमी योद्धाओं के बल से चिरकाल के शत्रु कर्मराज पर विजय पाकरमोक्षमहल में सदा के लिए निराकुलता से निवास करते हैं। इस प्रकारकी शूरवीरता उन कर्म विजयी मुनियों में ही पायी जाती है, इसलिए वे ही साक्षात् मोक्षलक्ष्मी के स्वामी बनने के पात्र हैं। इसी से उनकी अलौकिकी वृत्ति बतलायी गयी है।3
मुनियों के 28 मूलगुण एवं अन्य उत्तर गुण-
वदसमिदिंदियरोधो लोचावस्सयमचेलमण्हाणं।
खिदिसवण मदंतवणं णिदिभोयणमेगभत्तं च।।
एदे खलु मूलगुणासमणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता।
तेसु पमत्तो समणो छेदोवट्ठावगो होदि।। (प्रवचनसार अ.03,गा.08,09)4
अर्थ- 1. पांच महाव्रत(अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह),
2. पांच समिति (ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण, प्रतिष्ठापन)
3. पांच इन्द्रिय निग्रह (स्पर्श, रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण)
4. छह आवश्यक (समता, वंदना, स्तुति, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग)
5. शेष सात मूलगुण (केशलोंच, आचेलक्य, अस्नान, भूमिशयन, अदन्तधोवन, स्थितिभोजन, एकभुक्ति)
पापक्रिया रहित ये 28 मूलगुण मुनियां के जिनेन्द्र देव ने निश्यचकर कहे हैं। इन मूलगुणों से ही मुनिपर स्थिर रहता है। ये 28 मूलगुण निर्विकल्प सामायिक के भेद हैं। इसकारण ये मुनि के मूलगुण हैं इन्हीं सेमुनिपद की सिद्धि होती है। जैसे- कोई पुरूष सुवर्ण का इच्छुकहै उसपुरूष को सोने के कंकण, कुंडल आदि जितनी पर्यायें हैं वे सब ग्रहण करना कल्याणकारी है। ऐसा नहीं है कि सोना ही ग्रहण योग्य है उसके भेद पर्याय ग्रहण योग्यनहीं हो। यदि भेदों को ग्रहण नहीं करेगा तो सोने की प्राप्ति कहां से हो सकतीहै।क्योंकि सोना तो उन भेदों स्वरूप ही है। इसकारण सोने के सब पर्याय भेद ग्रहण करने योग्य है। इसीप्रकार निर्विकल्प सामायिक संयम का जो अभिलाषी है उसकोउस सामायिक के भेद 28 मूलगुण भी ग्रहण करने योग्य है क्योकि सामायिक इन मूलगुणों रूप है इसलिए इन गुणों में वह मुनि सावधान होता है।
इन 28 मूलगुणों के अतिरिक्त कर्मों की निर्जरा करने के लिए जितने साधन कहे गये हैं वे मुनियों के उत्तर गुण के रूप में जानना चाहिए।
‘‘व्रतसमितिगुप्तिधर्मानुप्रेक्षापरिषहजयचारित्रैः’’ ’’तपसा निर्जरा च’’ (तत्त्वार्थसूत्र अ.09सू.)5
गुप्ति :- सम्यग्दंडो वपुषः सम्यग्दंडतथा च वचनस्य।
मनसः सम्यग्दंड गुप्तित्रितयं समनुगम्यं।। (पु.सि.उ. श्लोक 202)6
अर्थ-शरीर को भले प्रकार वश में रखना उसीप्रकार वचन को भी पूर्णता से वश में रखना मन को भी अच्छी तरह वश में रखना ये तीन गुप्तियां अच्छी तरह पालन करना चाहिए।
धर्म :- धर्मः सेव्यः क्षांतिर्मृदुत्वमृजुता च शौचमथ सत्यम्।
आकिचन्यं ब्रह्म त्यागश्च तपश्च संयमश्चेति।। (पु.सि.उ. श्लोक 204)7
अर्थ- क्षमा भाव, मृदुभाव, ऋजुभाव, शुचि भाव, सत्य वृत्ति, आकिन्चन्य वृत्ति, ब्रह्मवृत्ति, त्याग, तप और संयम इस प्रकार धर्म सेवन करने योग्य है।
अनुप्रेक्षा :- अध्रुवमशरण्मेकत्वमन्यता शौचमास्रवो जन्म।
लोकवृषवोधिसंवरनिर्जराः सततमनुप्रेक्षाः।। (पु.सि.उ. श्लोक 205)8
अर्थ-अध्रुव, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संसार(जन्म), लोक, धर्म, रत्नत्रय, संवर, निर्जरा ये बारह भावनायें निरन्तर चितंवन करने योग्य है।
परिषहजय :- क्षुत्तृष्णा हिममुष्णं नग्नत्वं याचनारतिरलाभः।
दंशो मशकादीनामाक्रोशोव्याधिदुःखमंगमलं।।
स्पर्शश्च तृणादीनामज्ञानमदर्शनं तथा प्रज्ञा।
सत्कार पुरस्कारः शय्या चर्या वधो निषद्या स्त्री।।
द्वाविंशतिरत्येते परिषोढव्याः परीषहाः सततं।
संक्लेशमुक्तमनसा संक्लेशनिमित्तमीतेन।। (पु.सि.उ. श्लोक 206-208)9
अर्थ- अनशन
तप :- अनशनमवमौदर्यं विविक्तशय्यासनं रसत्यागः।
कायक्लेशो वृत्तेः संख्या च निषेत्यमिति तपोबाह्यं।
विनयोवैयावृत्यं प्रायश्चितं तथैव चोत्सर्गः।
स्वाध्यायोथ ध्यानं भवति निषेव्यं तपोतरंगमिति।।(पु.सि.उ. श्लोक 198-199)10
अर्थ- अनशन, अवमौदर्य, विविक्तशय्यासन, रसत्याग, कायक्लेश, वृत्तिपरिसंख्या ये छः बाह्य तपह है। विनय, वैयावृत्य, प्रायश्चित, कायोत्सर्ग, स्वाध्याय, ध्यान ये छः अंतरंग तप है।
पंच समिदो तिगुत्तो पंचेदियसंवुडो जिदकसाओ।
दंसणणाण समग्गो समणो सो संजदो भणिदा।। (प्रवचनसार अ.03,गा.40)11
अर्थ- जो ईर्या आदि पांच समितियों को पालता है, मन, वचन, काय तीन योगों के निरोध से तीन गुप्ति वाला है, पांच इन्द्रियों को रोकने वाला, कषायों को जीतने वाला और दर्शन ज्ञान से परिपूर्ण है वह मुनि है ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है।
मुनि बनने हेतु क्या करें –
जो जीव मुनि होना चाहता है वह सबसे पहले माता पिता स्त्री पुत्रादि कुटुम्ब के लोगों से पूछकर अपने कोछुड़ावे। यहां ऐसा नहीं समझना कि यदि विरक्त होवे तो कुटुम्ब को राजी करके ही होवे। कुटुम्ब से पूछने का नियम नहीं है। मुनिदशा धारण करते समय यदि कुछ कहना होवे तो वैराग्यरूप वचनों को कहे जिससे कुटुम्ब में जो जीव निकट संसारी हो वोभीविरक्त हो सके। इसके बाद वह सम्यग्दृष्टि जीव अपने स्वरूप को जानता देखता और अनुभव करता है अन्य समस्त व्यवहार भावों से अपने को भिन्न मानता है ता पर भावरूप सभी शुभाशुभ क्रियाओं को हेयरूप जानता है अंगीकार नहीं करता। लेकिन वही सम्यग्दृष्टि जीव पूर्व बंधे हुएकर्मों के उदय से अनेक प्रकार के विभाव भावों स्वरूप परिणमता है तो भी उन भावों से विरक्त है वह यह जानता है कि जब तक इस अशुद्ध परिणति की स्थिति है तक तक यह अवश्य होती है। इस कारण आकुलता रूप भावों को प्राप्त नहीं होता यद्यपि ज्ञान भाव से समस्त ही शुभाशुभ क्रियाओं का त्यागी है परंतु शुभराग के उदय से व्यवहार रत्नत्रयरूप पंचाचारों को ग्रहण करता है जब तक उससे शुद्ध स्वरूप को प्राप्त न हो जांउ। इसके पश्चात् सिंद्धान्तोक्त मुनि की क्रिया करने औरकराने वाले उत्तम कुलोत्पन्न लोकप्रिय अनेकगुणों से शोभायमान आचार्य को नमस्कार करके हाथ जोड़कर विनती करता है कि हे प्रभों मैं संसार से भयभीत हुआ हूँ सो मुझको शुद्धात्म तत्त्व की सिद्धि होने के लिए दीक्षा दो। तब आचार्य शुद्धात्मतत्त्व की सिद्धि कराने वाली जैनेश्वरी दीक्षा प्रदान करते हैं।12
मुनि की छेदोपस्थापक अवस्था-
मुनि जो कभी 28 मूलगुणों में प्रमादी हो जाता है तो निर्विकल्प सामायिक का भंग हो जाता है तो उसी भेद में फिर आत्मा को स्थापित कर छेदोपस्थापक होता है। मुनि अवस्था में एकदेश या सर्वदेश संयम का भंग होने पर दीक्षादायक गुरू द्वारा या जिस गुरू के उपदेश से फिर संयम की स्थापना की जावे वह गुरू निर्यापक कहाजाता है। संयम का भंग बहिरंग और अंतरंग दो प्रकार से जानना चाहिए। जो मुनि अंतरंग में उपयोग की निर्मलता से संयम मे सावधान है और बहिरंग में चलना बैठना सोना आदि शरीर की क्रियाओं में यत्न से प्रवर्तता है तथा यत्न करने पर भी जिसका किसी तरह शरीर मात्र क्रिया से उपयोग बिना ही संयम का भंग हुआ हो तो उस मुनि के सर्वथा अंतरंग में संयम का भंग नहीं हुआ है ऐसे बहिरंग से संयम का भंग जानना और यदि अंतरंग में उपयोग से संयम का घात हुआ हो तो वह साक्षात् संयम का घात है। ऐसे भंग हुए संयम के स्थापन का उपाय आलोचनादिक क्रिया है।13
संयम घात का कारण है रंचमात्र परिग्रह-
यदि मुनि अपने गुरूओं के पास रहे तब तो बहुत अच्छी बात है अथवा अन्य जगह रहे तब भी अच्छा है। परंतु सब जगह इष्ट अनिष्ट विषयों में संबंध रागद्वेष का त्याग होना चाहिए। क्योंकि मुनिपद के भंग होने का कारण परद्रव्यों के साथ संबंध होना ही है। परद्रव्यों के संबंध से अवश्य ही उपयोग भूमि में रागभाव होता है जिस जगह रागभाव है वहां पर वीतरागभाव मुनिपद का भंग होती ही है। इसलिए परद्रव्य का संबंध मुनि को सर्वथा निषेध है। ऐसा समझकर अपने ज्ञान दर्शनादि अनंत गुणों मे अपना सर्वस्व जान रत होना योग्य है। और28 मूलगुणों में यत्न से प्रवृत्त होना योग्य है।
यद्यपि मुनि ने स्थूल परद्रव्यों का त्याग तो पहले ही कर दिया है तथापि मुनिपद में रहने वाले सूक्ष्म परद्रव्य के अस्तित्व मे भी ममत्वभाव नहीं करना चाहिए। मुनिपद का
निमित्तकारण शरीर, शरीर का आधार आहारग्रहण, शुद्धात्मा मे स्थिरताका निमित्तभूत उपवास, मन की चंचलता को रोकने के लिए एकान्त पर्वत गुफादि निवास, शरीर की प्रवृत्ति के लिए आहार निहार की क्रिया में विहार, गुरू शिष्य के भेद से पठन पाठन अवस्था में दूसरे मुनियों से संबंध, पौद्गलिक शब्दों के द्वारा कथाचर्चा इनमें भी ममत्वभाव करने से शुद्धात्म द्रव्यवृत्तिरूप मुनिपद का भंग हो जाता है। इसलिए सूक्ष्म परद्रव्यों में भी संबंध करने का निषेध है।
मुनि की हलन चलनादि क्रिया द्वारा परजीव के घात से बंध होव भी और न भी होवे परंतु यदि मुनि परिग्रह का ग्रहण करे तो बंध निश्चय से होता ही है। परिग्रह का ग्रहण अंतरंग भाव बिना शरीर की चेष्टा से कदापि नहीं होता। इसलिए ऐसा जानकर ही भगवान वीतरागदेव परिग्रह का सर्वथा त्याग करते हैं और दूसरे मुनियों को भी यही चाहिए की वे भी समस्त परिग्रह का त्याग करें।14
क्षेत्र और काल की अपेक्षा संयम की रक्षा के लिए मुनियों द्वारा अत्याज्य परिग्रह-
जिस समय कोई मुनि सबपरिग्रह को त्यागकर परम वीतराग संयम को प्राप्त होना चाहता है वही मुनि किसी एक काल की विशेषता से अथवा क्षेत्र के विशेष से हीन शक्ति होता है। तब वह वीतराग संयम दशा को नहीं धारण कर सकता इसलिए सरागसंयम अवस्था को अंगीकार करता है। और उस अवस्था का बाह्य साधन परिग्रह ग्रहण करता है। मुनि के उस परिग्रह ग्रहण से संयम का घात नहीं होता। संयम का घात वहां होता है जहां पर मुनिपद का घातक अशुद्धोपयोग होता है। यह परिग्रह तो संयम के घात के दूर करने के लिए है। मुनिपदवी का सहकारी कारण शरीर है और उस शरीर की प्रवृत्ति आहार निहार के ग्रहण त्याग से होती है उसे संयम के घात के निषेध के लिए अंगीकार करते हैं। इसप्रकार मुनि अवस्था के सहायक जितने भी उपकरण रूप परिग्रह है उन्हें ग्रहण करते हैं। द्रव्यलिंग रूप शरीर, गुरूपदेश रूप वचन, शास्त्र रूप सूत्र, महामुनियों की विनय रूप चित्त, शरीर की स्थिति के निमित्त रूप आहार, शुद्धि के निमित्त रूप कमण्डल, संयम की रक्षा रूप पीछी आदि पुद्गल उपकरण है। जैसे घट पटादि पदार्थों के देखने के लिए दीपक में तेल डालते हैं और बत्ती आदि को भी संभालते हैं उसीप्रकार मुनि शुद्धात्मतत्त्व की प्राप्ति के लिए शरीर कोभोजन से तथा चलनादि क्रिया से योग्य आहार बिहार में प्रवृत्त करते हैं।15
मुनियों के संयम रक्षक योग्य आहार का स्वरूप-
1. मुनि पर्याय का सहायक शरीर है उस शरीर की स्थिति एक बार आहार लेने से हो जाती है इसलिए मुनि को एक ही बार आहार करना चाहिए।
2. संयम के आधाररूपशरीर की स्थिति के निमित्त पेट भरके आहार न लेकर उनोदर रहना ठीक है।
3. जैसा कुछ मिले वैसा ही यथालब्ध आहार ठीक है।
4. भिक्षावृत्ति से यदि आहार लिया जावे तो आरम्भ नहीं करना पड़ता अतः भिक्षा से लेना योग्य है।
5. दिन में अच्छी तरह दिखलायी देता है, दया का पालन होता है इसलिए दिन का आहार योग्य है।
6. अंतरंग परिणामों की शुद्धि के लिए नीरस आहार योग्य है।
7. मधुमांस युक्त आहार निरन्तर हिंसा का स्थान है अतः अहिंसक निःपाप आहार योग्य है।
इससे यह बात सिद्ध हुई की जो आहार एक वक्त लिया जावे, पेट भरके न लिया जावे, भिक्षावृत्ति से युक्त यथालब्ध दिन में नीरस मांसादि दोष रहित लिया जावे वह आहार योग्य है। इससे अन्य रीति से जो लेना है वह अयोग्य है।16
उत्सर्गमार्ग और अपवादमार्ग में मैत्रीभाव से मुनि आचार की स्थिरता संभव है-
जब मुनि बाल,वृद्ध, खेद, रोग इन चार अवस्थाओं से सहित हों परंतु शुद्धात्मतत्त्व के साधने वाले संयम का भंग जिस तरह न हो उस तरह अति कठिन अपने योग्य आचरण को करें वही उत्सर्ग मार्ग है और जहां पर बालादि दशा युक्त हुआ शुद्धात्मतत्त्व के साधने वाले संयम का तथा संयम के साधक शरीर का नाश जिस तरह न हो उसी तरह अपनी शक्ति के अनुसार कोमल आचरण करे ऐसा संयम पाले वहां अपवादमार्गहै। इस तरह मुनिमार्ग के दो भेद हैं। यदि उत्सर्गमार्गी कठोर ही आचरण करे रागादि अवस्था के वश से जघन्य दशारूप अपवादमार्ग को न धारण करें तो शरीर के नाश से संयम का नाश करेगा। इसलिए उत्सर्गमार्गी को अपवादमार्ग से मैत्रीभाव रखना योग्य है और अपवादमागी्र को उत्सर्गमार्ग से मैत्री भाव करना योग्य है। यदि अपवादमार्गी रोगादिक से पीड़ित हुआ शरीर की रक्षा के लिए जघन्य ही आचरण करने में प्रवृत्त होगा तो वह प्रमादी हुआ उत्कृष्ट संयम को नहीं पा सकेगा और जघन्य संयम का भी नाश करेगा। इसलिए अपवादमार्गी को उत्सर्गमार्गी से मैत्रीभाव रखना योग्य है। इसप्रकार दोनों मार्गों में यदि परस्पर मैत्रीभाव होवे तो मुनि के आचार की स्थिरताअच्छीतरह हो सकती है।17
मोक्षमार्ग और मुनिपद दोनों अविनाभावी है-
पूज्य आचार्य अमृतचन्द्र ने मोक्षमार्ग का दूसरा नाम मुनीश्वर पद है ऐसा कहा है। चाहे मुनीश्वर कहो अथवा मोक्षमार्ग कहो नाम मात्र का भेद है वस्तु भेद नहीं है। मुनि जो है वह ज्ञान दर्शन चारित्र रूप मोक्षमार्ग है इसकारण एकता है।18
कुछ एकान्त निश्चयाभासी लोग आचार्य अमृतचन्द्र के कथन का गलत अभिप्राय निकालकर चतुर्थ गुणस्थान से मोक्षमार्ग स्वीकार करके अर्थ का अनर्थ कर रहें हैं एवं जनता को भ्रमित कर रहें हैं।
मुनि को सिद्धान्त के पठन की प्रवृत्ति करने योग्य है-
सिद्धान्त के बिना यथार्थ पदार्थों का निश्चय नहीं किया जा सकता। जिसके पदार्थों का निश्चय न हो वह पुरूष निश्चय स्वरूप में आकुलचित्त हुआ स्थिर भाव को नहीं धारण कर सकता सब जगह डांवांडोल रहता है। सिद्धान्त के अभ्यास से पदार्थों का निश्चय होताहै उस निश्चय से एकाग्रता होती है उस एकाग्रता से मुनिपद होताहै मुनिपद और मोक्षमार्ग एक है। इस कारण मोक्षाभिलाषी को आगम का अभ्यास करना उचित है। कहा भी है- आगमचक्खू साहू मोक्षमार्गी महामुनि आगमनेत्र के धारक होते हैं उस आगमनेत्र के द्वारा अपने स्वरूप और पररूप का भेद करते हैं।19
आत्मज्ञान मोक्ष का मुख्य साधन है –
तत्त्वार्थ श्रद्धान, संयमभाव, आगमज्ञान की एकता भी मोक्ष प्राप्ति में कार्यकारी नहीं होती यदि आत्मज्ञान सहित न हो। आत्मज्ञान सहित हो तभी मोक्ष का साधक हो सकता है अतः आत्मज्ञान मोक्ष का मुख्य साधन है।20
शुभोपयोगी और शुद्धोपयोगी मुनि का स्वरूप-
आगम में मुनियों के दो प्रकार बताये हैं शुभोपयोगी और शुद्धोपयोगी। आस्रव भाव सहित मुनि शुभोपयोगी हैं और आस्रवभाव रहित मुनि शुद्धोपयोगी है। शुभोगपयोगी कषाय उदय से शुद्धात्मा में स्थिर होने में अशक्त हैं। अतः ये पंच परमेष्ठियों में भक्ति,सेवा, प्रीतिसे सहित होते हैं। महामुनियों की स्तुति, नमस्कार, विनय, वैयावृत्ति आदि क्रियायें करते हैं। धर्मानुराग से सभी जीव धर्म को धारण करे तो बहुत अच्छा है ऐसा विचारकर उपदेश देते हैं शिष्यों को रखते हैं भगवान की भूमिका उपदेश देते हैं।21
द्रव्यलिंगि श्रमणाभासी मुनि का स्वरूप-
जो सिद्धान्त का जानने वाला हो, संयमी तपस्वी भी हो लेकिन सर्वज्ञ प्रणीत जीवादिक पदार्थों का श्रद्धान नहीं करता वह श्रमणाभासी कहा जाता है। ऐसा मुनि दूसरे जिनमार्गी मुनि को देखकर द्वेषभाव से निन्दा करता है निरादर करता है। अपना सम्मान चाहता है। अहंकार करता है। जो लोक संबंधी संसारी कर्म ज्योतिष, वैद्यक, मंत्रयंत्रादिको में प्रवर्तता है। ऐसे मुनि की संगति त्यागकर सच्चे साधु की संगति करना चाहिए।22
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची –
1. पुरूषार्थसिद्धयुपाय श्लोक 16
2. प्रवचनसार अध्याय 01 गाथा 07
3. पुरूषार्थसिद्धयुपाय श्लोक 16 विशेषार्थ पृष्ठ 40 हिन्दी टीकाकार पं. मक्खनलाल शास्त्री प्रकाशक भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद्
4. प्रवचनसार अध्याय 03 गाथा 08,09
5. तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 09 सूत्र
6. पुरूषार्थसिद्धयुपाय श्लोक 202
7. पुरूषार्थसिद्धयुपाय श्लोक 204
8. पुरूषार्थसिद्धयुपाय श्लोक 205
9. पुरूषार्थसिद्धयुपाय श्लोक 206,207,208
10. पुरूषार्थसिद्धयुपाय श्लोक 198,199
11. प्रवचनसार अध्याय 03 गाथा 40
12. प्रवचनसार अध्याय 03 गाथा 02,03 पृष्ठ 248-252 प्रकाशक श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास
13. प्रवचनसार अध्याय 03 गाथा 09,10,11 पृष्ठ 257-260 प्रकाशक श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास
14. प्रवचनसार अध्याय 03 गाथा 13-19 पृष्ठ 261-269 प्रकाशक श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास
15. प्रवचनसार अध्याय 03 गाथा 22-26 पृष्ठ 272-281 प्रकाशक श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास
16. प्रवचनसार अध्याय 03 गाथा 29 पृष्ठ 283-285 प्रकाशक श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास
17. प्रवचनसार अध्याय 03 गाथा 30 पृष्ठ 285-290 प्रकाशक श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास
18. प्रवचनसार अध्याय 03 गाथा 32 पृष्ठ 290-293 प्रकाशक श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास
19. प्रवचनसार अध्याय 03 गाथा 34-36 पृष्ठ 295-298 प्रकाशक श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास
20. प्रवचनसार अध्याय 03 गाथा 39 पृष्ठ 302 प्रकाशक श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास
21. प्रवचनसार अध्याय 03 गाथा 45-48 पृष्ठ 309-312 प्रकाशक श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास
22. प्रवचनसार अध्याय 03 गाथा 63-70 पृष्ठ 323-330 प्रकाशक श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास
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