प्रस्तावना –
षड़ ऋतुओं के समुच्चय से जिस प्रकार एक वर्ष की प्राकृतिक सृष्टि होती है वैसे ही छः काव्य शतकों के समुच्चय से षट्शती‘‘ का प्रणयन हुआ है। वर्तमान के वर्द्धमान ,मोही प्राणिये’ के मोहान्धकार को नष्ट करने में सतत प्रवर्तमान, ज्ञान – सूर्य समपरम तेजस्वी एवं जन-जन मन को निज रत्नत्रय से ,आकर्षित ,हर्षित एवं आन्दोलित करने बाले , साधु सम्राट आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज के संस्क्रत भाषा पर अधिकार को द्योतित करने बाली एक अभूतपूर्व कुति ‘षट्शती’ सस्कृत भाषा के ग्रन्थों में अनन्यता से अघिष्ठित होने में समर्थ हुई है। यह कृति काव्यशाक्त्रीय सूत्रों से अलडत एवं आगनिक तत्व विवेचना से हरिपूर्ण है । ‘‘षट्शती‘‘ में काव्यशास्त्रीय तथा साहिव्यिक अनुबन्धों का निबंधन एवं समीचीन ज्ञान के निदर्शन का अनूठा संगम परिलक्षित होता है। प्राय: देखा जाता है कि किसी विद्वान् में तत्व की समझ तो है परन्तु भाषिक पाण्डिल्य की न्यूवता से अथवा भाषिक ज्ञान की प्रखरता परन्तु तत्व ज्ञज्ञन की न्यूवता के कारण वह काव्य रचना में अग्रसर नहीं हो पाता।
उक्त ग्रन्थ इसलिए भी महत्वशाली ज्ञात होता है क्योंकि अलंकार, छन्द शब्द सौष्ठव एवं भाषा शैली जैसे साहित्यिक गुणो के साथ में सम्यग्ज्ञान का भी संयोग है। ऐसे ग्ररु एवं उनकी कृति ‘षट्शती’ को पाकर हम सभी गौरवान्तिव है।
अलंकार योजना
-‘‘काव्यशेभाकरान् धर्मान् अलंकारान् प्रचक्षते’’
विद्वानों के उपरोक्त कथनानुसार किसी काव्य की शोभा को वृद्धिंगत करने वाले गुणधर्म को अलंकार कहते हैं। आचार्य मम्मट ने काव्यप्रकाश में अलंकार को निम्न रुप से दर्शाया है।
उपकुर्वन्ति तं सन्तं ये ऽडग्द्वससोध्स जसतुख्त् ि।
हसासउिचउलक्डरास्तेडनुप्रासोपमादय: ।
जिस तरह से कोई सौन्दर्य शालिनो युवाति स्वर्णादि आभूषणों से सुसज्जित होती है तो उसके सौन्दर्य में गुणित रूप में सृद्धि पाई जाती है उसी प्रकार किसी काव्य में विद्यमान अनुप्रास उपमा आदि अंलकार काव्य के अग्ड रूप् में उपस्थित होकर काव्य के सौन्दर्य को बढ़ाते हैं ।
उपर्युक्त उथन को बुद्धि पटल पर स्थापित कर जब षट्शती ग्रन्थ का अवलोकन किया जाता है तो ज्ञात होता है कि उपर्युक्त ग्रन्थ का अन्यान्य अलक्डारों से अलक्डत है । आचार्य श्री ने षट्शतकों के छन्दों के माध्यम से अनेकों अलक्डारों का प्रदर्शन किया है जिसमें मुख्य रूप् से यमक दृष्टान्त अलंकारों का प्रचुरता में प्रयोग किया है साथ, ही, उपमा अलंकार, रूपक, अर्थापति, दीपक , काव्यलिग्ड,
उल्लेख, प्रतिवस्त्पभा, निदर्शना, तुल्योगिता, श्लेश, विभावना, अपहुति , विरोधाभाष श्लेष, व्यतिरेक आदि अनेक अलंकारों का भी समावेश किया है, क्वचित चित्रालंकार के समावेश से आचार्य श्री की कलात्मकता की प्रखरता द्योतित होती है ।
यमक अलड्डार-
ग्रन्थ को पढ़ने मात्र से इतना अवश्य ज्ञात होता है कि सम्पूर्ण ग्रन्थ में आचार्य श्री ने उपयोग पूर्वक सर्वत्र यमक अलंकार का प्रयोग किया है, माने यह उनका सर्वप्रिय अलक्डार है। श्रमणशतकम् भावनाशतकं तो पूण्ररूप् से यमकमय ही दिखाई देता है, तथा अन्य शतकों में भी प्रचुरता से यमक का प्रयोग किया है। चैतन्य चन्द्रोदय में यमक अलंकार का प्रयोग अत्यल्प हुआ है।,
मेरे निजी अनुभव से कथन किया जोय तो इस प्रकार के यमक अलक्डार का प्रयोग अभी तक के किसी भ िकवि द्वारा किया गया जान नहीं पडता हे। यह ग्रन्थ वर्णों एवं पदों की आवृति से ओत प्रोत होता हुआ एक अलैकिक आकर्षक एंव हृदयगम्य वातावरण को निर्मित करता ळै, कि अर्थ से अनभिज्ञ व्यक्ति भी इसे शब्द क्रीड़ा मात्र से हर्षित होता हुआ सहजता से पढ़ता चला जाता हे। यमक के प्रयोग मे भ्ज्ञी आचार्य श्री ने क्लिष्टता का अभाव एवं सुबोधगम्यता का सद्भाव, रखा है, इन गुणें के कारण ही पाठक गण रसानुभूति को अविच्छिन्न रूप् से ग्रहण करते हुए आनंद का अनुभव करते हैं।
चूँकि प्रायः देखा जाता ळै कि कावि आर्थालकारों का प्रयोग करके काव्य में रमणीयता लाते है परन्तु आपने यमक जैसे शब्दालंकार को मुख्यता से प्रयोगकर यह भ्ज्ञी सिद्ध किया है कि शब्दालंकार केे प्रयोग से काव्य की सृष्टि करके उत्कर्स प्रदान किया जा सकता है।
यमक अलंकार वहाँ होता है जहाँ पर एक ही शब्द पद की आवृति दो या अधिकबार हुई हो तथा अर्थ प्रत्येक का प्रथक -प्रथक हो/ इसे कुछ उदाहरण के माध्यम समझते हैं-
प्रणमामि कुन्दकुन्दं , भव्य पन्दा बन्द्युं धृतवृष्ज्ञ कुन्दम्।
गतं च समताकुं दुं , परमं सम्यक्त्वैक कुन्दमु।।
यहाँ प्रथम ‘‘ कुन्दकुन्द’’ का तात्पर्य आचार्य देव कुन्दकुन्द से है, तथा पुनः धर्मचक्र स्वीकृत है।
इसी तरह अन्य अनेकों उदाहण हैं।
अर्थान्तरन्यास –
जब किसी सामान्य का विशेष से या विशेष का सामान्रू से समर्थन किया जाता है तो वहाँ पर अर्थान्तरन्यास अलंकार की गणना की जाती है।
आचार्य श्री ने सुनीतिशतक एवं निरज्जनशतक को इस प्रकार अर्थान्तरन्यास से रसान्वित किया है जैसे किसी हलवाई ने शर्करा के रस में रसगोलक को तर कर दिया हो। इस अलंकार के प्रयोग से आचार्य श्री का पाण्डित परिलक्षित होता हैं वहीं उनके व्यावहारिक एवं लोकिक अनुभव की झलक भी दिखाई देती ळै। सूक्तियों के प्रयोग से यह ग्रन्थ्ज्ञ सुबोध, सुगम्य एवं हृदय स्पर्शी बन गया है तथा साधरण जनोपयोगी भी सिद्ध हुआ है। जैसे कि सुनीतिशतकं- 32
विश्वस्यसारं प्रदिहायविज्ञ: क: स्वः त्वटेत् भुविवीत मोहः।
निस्सारभ्तं किमुतक्रमिष्टं स्वादिष्ट आप्ते नवनीत सारे।।
पृथ्वी पर कौन ऐसा निर्मोही ज्ञानी पुरुष है जो सब पदार्थों में सारभ्त अपने आत्मा को छोड़कर धन को प्राप्त करना चाहे क्योंकि स्वादिष्ट मक्खन के रुप सार के प्राप्त हो जाने पर क्या सार हीन छाछ इष्ट होती है निरज्जनशतकं – 62
जिगमिषुर्निकटं तव ना विना, स नियमेन जडो ननु ना विना।
द्वगिह बीज मजा अवनाबिना, नहि सतां सुफलेडमलिना बिना।।
अर्थात हे जन्मातीत हे नाथ जिनदेव जो पुरुष व्रत नियमादि के बिना आपके निकट जाना चाहता है सह निश्चय से अज्ञानी है उचित ही है इस पृथ्वी में बीज के बिना सज्जनों की दृष्टि सुन्दर फल पर नहीं हो सकती ।
दृष्टान्त अलंकार-
जहाँ पर बिम्ब प्रतिबिम्ब का भाव प्रदर्शित होता है वहाँ दृष्टान्त अलंकार कहा गया है।
ग्रन्थ में यमक व अर्थान्तरन्यास अलक्डार के बाद दृष्टान्त अलंक्डार है जो सर्वाधिक स्थानों पर प्रयुक्त हुआ है। दृष्टान्त देना ही केवल आचार्य श्री के पाण्डित्य का बोधक नहीं है अपितु पारमार्थिक एवं लौकिक ज्ञान को किस प्रकार संगत किया जा सकता है इसका भ्ज्ञी प्रदर्शक है। दृष्टान्तों के मिश्रण से ग्रन्थ में सरसता का प्रबाह बन पड़ा है जिससे पाठक कठिन चासनी से लिप्त कड़वी औषधि को शिशु भी सहजता से ग्रहण कर लेता है।
यथा-
संज्ञाततत्वोडव्यधनी गृही स,लोकेडत्रदृष्टो धनिकानुगामी।
श्वा स्वामिनं वीक्ष्य यथाशुदीनः, सुखाय सज्चालित लूमको डस्तु।।
वस्तु तत्व का ज्ञाता होकर भी, निर्धन गृहस्थ सुख प्राप्ति के लिए उस प्रकार धनिकों का अनुगमन उनकी हो में हो मिलता हुआ दुखा गया है जिस प्रकार की मालिक को देखकर ,सुखपाने की इच्छा से पूछँ हिलता हुआ शीघ्र दीन हो जाता है।
श्लेष अलंकार –
जहाँ पर अलग अलग अर्थो के शब्दों को एक रूपता से वह शब्द एक ही दिखाई देता हे वहाँ श्लेष अलंकार होता है। शब्द श्लेष औश्र अर्थश्लेष से श्लेष श्री ने शब्द श्लेष का प्रयोग भी प्र्याप्त मात्रा में किया है। श्लेष युक्त पदो ंके दिन्यास से, किन्हीं दन्दों में जटिलता भ्ज्ञी पटिलसित हुई है, परन्तु यह उनके भाषा ज्ञान एवं शिल्प-कौशल तथा बौद्धिक पटुता का ही द्योतक है । श्लेष विद्वान की कसौटी कहा गया है ।
जैसे कि
विरतोडकामहाने, शतकं कामदं च कामहानये।
नम: कामहानये, वदेडविद्कृत कामहानये।। भावना-4
इस दन्छ में प्रथम पद में, अकाहानये इस पदांश में अक- पापरूप, अम- रोग को, हा- नष्ट करने बाले जिनेन्द्र भगवन्। तथा ,द्वतीय पद में कामदं पदांश में काम- मोक्ष ,दं देने बाले।
इस प्रकार, अनेक स्थानों पर शब्दश्लेष की कोमल कलिकाओं के गुंफन से ग्रन्थ अत्यन्त मनोहारी हुआ है।
अनुप्रास अलंकार –
वर्णों की अथवा पदों की आवृति का होना अनुप्रास अलंकार होता है अनुप्रास में वर्णों एवं पदों की सार्थकता कीअपेक्षा नहीं होती है।
चूूँकि यमक अलंकार के कारण अनुप्रास प्रायः प्रत्येक दन्द में दृष्टिगोचर होता है परन्तु अनेक स्थानों पर वर्णों के विन्यास से संगीतमयता भी उत्पन्न हुई हे। सम्पूर्ण ग्रन्थ में अनुप्रास अपने सम्पूण्र भेदों सहित जल की अविरल धार के समान तारतम्यता से उपस्थित होकर ग्रन्थ की महनीयता में सहभागिता दिखाई हैं।
जैसे कि- परीषहजयशतक- 9,10
1. अनघतां लघुनैति सुसंगतां, सुभगतां भगतां गत संगताम्।
2. निजतनोर्ममतां वमता मता, मतिमता समता नमता मता।
3. सुरनगः सुरगोंः सुरवैभवं, सुरपुरे वितनोति चवैभवम्।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि ‘‘ अनुप्रास पद पदे विराजते ’’
उपसंहार: –
जैसा कि सर्वदिदित है कि गुरुणां गुरु आाचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज संस्कृतभाषा के प्रकाण्ड विद्वान थे एवं उन्होंने अपनी ब्रहनचर्य अवस्था के जीवन काल में जयोदय, दयोदय, वीरोदय आदि महाकाव्यों की रचना करके अपना नाम प्राचीन महाकविदयों की श्रेणी में स्थापित करने में समर्थ हुए है। । आचार्य श्री विद्यासागर जी ने भी मानो गुरु का सम्पूण्र ज्ञान संग्रहीत कर लिया हो तथा अपनी तीक्ष्ण बुद्धिबल के प्रयोग से ज्ञानार्जन करके उस ज्ञज्ञन का प्रकाशम षट्शती ग्रन्थ के माध्यम से किया हो। वास्वत में यह कृति उच्चकोटि की रचना सिद्ध होती है। एवं रचनाकौशल, शिल्प एवं साहित्यिक वैभव के कारण विद्वानों के लिए आदर्शमूत बन पड़ी है।
उपमा कालिदासस्य, यद् विद्वभि: सम्मत: ।
यमक श्रेष्ठ: गुरु ज्येष्ठः विद्यागुरवे नमोनमः ।।
एक एवस्त्वलक्डारः , शोभतेडत्र पदे पदे।
विन्यस्तपदवर्ण महये, यमकस्तु मुक्तायते।।
जय जिनेन्द्रः
विभिन्न शतकों में अलंकारों की गणना, छन्द संख्यानुसार
श्रमणशतकम्- यमक/अनुप्रास-1,3,4,37,42,46,54,56,
रूपक- 4,3,5,7,9,15,17,81,93,98
अर्थान्तरन्यास- 10,67
तुल्योगिता- 10,14,
दृष्टान्त- 25,74,
उपमा- 83, श्लेष – 101
भावनाशतकम्- 7,12,24,25,36,51,76,86
यमक- 14,11,12,8,7,39,53,68
दृष्टान्त- 23,38,45,56,61,78
प्रतिपस्त्पमा- 30,31,
दीपक- 36 ,37
तुल्योगिता- 85
निरज्जनशतकम्- अर्थान्तरन्यास- 8,16,19,22,25,27,54,57,58,62,82,83,88,
रुपक – 10,66, विभावना- 12
अपहुति- 14, उपमा-30,
विरोधाभाष- 39, श्लेष -70, व्यतिरेक-19,दृष्टान्त- 96,
परीषहजयशतकम्-
अर्थातस्यास- 19,52,87,91
यमक- 1, काव्यलिंग- 4,दृष्टान्त 7,12,
अनुप्रास-9,10 उपमा-38,उत्प्रेक्षा-57
सुनीतिशतकम्- अर्थान्तरन्यास- 03,05,06,08,19,27,32,35,43,52,58,67,95
अर्थापति- 05,11,21,100
दृष्टान्त 14,15,18,25,29,37,40,42,44,45,76,77,79,80,83,99
अनुप्रास- 08,09,31
दीपक- 20,54, उल्लेख- 46 प्रतिवस्तुपमा- 49,62
उपमा- 4
चैतन्य चन्द्रोदयशतकम्-
अनुप्रास – 21,111
अर्थान्तरयास – 35
(27) Comments