मुख्य बिन्दु
1 प्रस्तावना
2 परिभाषा
3 सल्लेखना कौन और कब करे
4 सल्लेखना का उद्देश्य/ प्रयोजन
5 सल्लेखना के भेद
6 श्रावक को सल्लेखना के सोपान
7 सल्लेखना का महत्व एवं फल
8 सल्लेखना में लगने बाले अतिचार
9 उपसंहार आदि
प्रस्तावना –
यह यथार्थ है कि समस्त भारतीय दर्शनों के सिद्धान्तों की व्याख्याओं पर समग्रता से विचार किया जाये तो स्वत एव जैनदर्शन अद्वतीय’ पृथक सर्वोत्कृष्ट एवं सत्य प्रतीत होता है। इस प्रतीति का कारण यह है कि जहाॅ। अन्य धर्म एवं दर्शनों में कृचित् मुक्ति अथवा माक्ष का कथन करने के उपरान्त मोक्ष प्राप्ति के साधनों एवं मार्गों का जो कथन वर्णित है वह या तो अपूण्र है अथवा दुरवधेय है और हमारी मान्यता में मिथ्या है । जैनदर्शन एकमेव ऐसा दर्शन है जो दन्सान को भगवान् बनने की बात कहता है। इतोडपि अन्यदर्शनों में कृचित् श्रेष्ठतम जीवनशैली के लिर्माण के कुछ मन्त्र उपलब्ध भी हों तथापि जीवनान्त क्षणों में मरण को श्रेष्ट बनाने की प्रक्रिया केबल जैनधर्म में ही वर्णित है एव्र उस प्रक्रिया का नाम है संल्लेखना।
सत़ $ लेखना से सल्लेखना बना है। लेखना शब्द की व्युत्पति लिख् धातु से ल्युट प्रत्यय करके स्त्रीत्व विवक्षा में टाप् करके हुई । लिख धातु का अर्थ कृश करना निहित है। लिख धतु के अन्य अर्थ पतला करना या दुर्बल करना भ्ज्ञी है। अतःसंल्लेखना शब्द का तात्पर्य अच्छी प्रकार से या भली भाॅंति कृश करना ।
अब ध्यान इस बात पर केन्द्रित करना है कि कृश या दुर्बल किसे ’ कब ’ क्यों औश्र कैसे करना है। यह बात हम आग्र समझेंगें
परिभाषा-
संल्लेखना की परिभाषा स्पष्ट करते हुए आ़ पूज्यपाद स्वामी कहते हैं कि अच्छे प्रकार से काय और कषाय का लेखन करना यो कृश करना संल्लेखना है। अर्थात् बाहरी शरीर औश्र भीतरी कषायों का उत्तरोत्तर काय औश्र कषय को प1ुष्ट करने बाले कारणें को घटाते हुए भले प्रकार स ेलेखन करना संल्लेखना है।1
भगवती आराधना में पाॅच प्रकार के मरण का वर्णन किय है- पण्डित पण्डित मरण पण्डित करण् बल पण्डित मरण बाल मरण एवं बाल बाल मरण। इसमें से प्ररंभ के तीन प्रश्ंसनीय कहे है। तथा उनमें जो पण्डित मरण की प्रक्रिया है उसको समाधि मरण कहा है।2
1 ≦ककाय कषय लेखना सल्लेखना। कायस्य बाहास्याभ्यन्तराणच्चा कषायाणां तत्कारण हायरक्रपेण सम्यग्लेखना सल्लेखना।
2- करणाणि सतरस देसिदाणि तित्यंकरेहि जिणवयणे।
तत्थवि य पंच इह संगहेग करणानि वोच्छामि।।
तदन्तर्गत सम्यक्कषायतनूकरणं सल्लेखना सम्यक् रीति से शरीर और कषाय को कश करना सल्लेखना कहलाता है।1
सल्लेखना कौन और कब करे – भगवती आराधना में छठे से ग्यारहवें गुणस्थान धारी मुनि को पण्डित कमरण का अधिकारी कहा है तथा पण्डित मरण को सल्लेखना कहा है।
आाचार्य समन्तभद्र स्वामी ने श्रावकों लिए भी सल्लेखना आवश्यक कहा हे।
तत्वार्थसूत्र जी में अणुव्रत ’ गुणव्रत और शिक्षाव्रत के धारी श्रावक को
सल्लेखना का आराधक कहा हैै।
दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकप्रोषधोपवासोपभेगपरिभोगातिथिसंविभागव्रतसंन्नच्श्र।
मारणान्तिकीं सल्लेखनां जोषिता। इन सूत्रों के माध्यम से श्रावक को संल्लेखना का आराधक बताया है।2
इससे यह बात स्पष्ट है कि संल्लेखना केवल कुनियों के लिए नहीं है अपितु श्रावक के लिए भी है। और मनुष्यगति में ही है अन्यगति के जीवों का उल्लेख नही है
तदनन्तर यह जानना अत्यन्त आवश्यक होता है कि संल्लेखना कब धारण की जाये तो आचार्य श्री समन्तभद्र के शब्दों में – यदि शरीर नाश का कारण उपसर्ग ’ दुर्भिक्ष’ जरा या रोग उपस्थित हो जाये और प्रयन्न करने पर भी प्रतिकार असंभव हो तब धर्म की रक्षा के लिए सल्लेखना धारण करना चाहिएै।3 आचार्य उमास्वामी जी ने भी कहा है – मारणान्तिकीं संल्लेखनां- जोषिता। अर्थात् मरणान्त के समय सल्लेखना प्रीतपूर्वक ग्रहण करना चाहिए।4
1 – भ ़आ ़गा ़ 67 की टीका
2- ततवार्थ सूत्र 7/20-22
3- उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निष्प्रतीकारे । धर्माय तनु विमोचनमाहु: सल्लेनामार्या: ।।
4- तत्तवार्थसूत्र 7/22
पूज्यपाद स्वामी ने भी इस प्रकार वर्णन किया है- उसी भव का ज्ञान कराने के लिए सूत्र में मरण शब्द के साथ अन्त पद का ग्रहण किया है और जिसका यह मरणान्त ही प्रयोजन है वह मारणानिकी कहलाता है।1
पूज्य अकलंक देव ने भ्ज्ञी इस प्र्रकार कहा है- जरारोगेन्द्रियहानिभिरावश्यक परिक्षये। अर्थात् जरा’ रोग इन्द्रिय व शरीर बल हानि पर सल्लेखना होती है।
उपरोक्त सन्दर्भों से स्पष्ट परिलक्षित होता हे कि श्रावक या मुनि को सल्लेखना तभी धारण करना चाहिए जब तो धर्म को ही बचाना श्रेष्ठ है। जैसा कि उपाय उपस्थित न हो क्योंकि तो धर्म को ही बचाना श्रेष्ठ है। जैसा कि पूज्यपाद स्वामी भी कहते हैं – जैसे नाना प्रकार की विक्रेय वस्तुओं के देनें ’ लेने और संचय में लगे हुए किसी व्यापारी को अपने घर का नाश होना इष्ट नही ंतब भी परिस्थितिवश उसके विनाश के कारण उपस्थित हो जाने पर यथाशक्ति उनको दूर करता है ’ यदि वे दूर न हो सकें तो मूल्यवान् विक्रेय वस्तुओं का नाश न हा ऐसा प्रयनत करता हे। उसी प्रकार पुण्यस्थानीय व्रत औश्र शील के संचय में जुटा गृहस्थ आयु आदि का पतन नहीं चाहता तो भी यदि विनाश का कारण उपस्थित हाता है तो यथाशक्ति दूर करने का प्रयन्त करता है इतने पर भी दूर न होने पर अपने शीलगुणों को बचा लेता है ।2 औश्र वर्तमान का उदाहरण देखें जैसे- सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर में बड़े बाबा भगवान आदिनाथ का जो पुराना मन्दिर था वह जीर्णशीर्ण हो चुका था जिससे आगामी काल में उसके टूटने की संभावना थी और भगवान की मूर्ति जो की भक्तों के लिए अमूल्य थी उसे हानि से बचाने के लिए अपने पूज्य एवं आराध्य भगवान आदिनाथ की प्रतिमा को नये मंदिर में विराजमान करके पुराने मंदिर को पृथक कर दिया।
1- स ़सि ़/7/22/364/1
2- सर्वार्थसिद्धि
सल्लेखना का प्रयोजन – प्रयोजनमनुदिदेश्य मन्दोडपि न प्रवर्तते। अर्थात् जब बिना प्रयोजन क ेमूर्ख कोई कार्य नहीं करता तब ध्यातत्य हो कि हम सल्लेखना क्यों कर रहे हैं ’ इसका प्रयोजन क्या है। सल्लेखना में मुख्यभिका हमारे विशुद्ध परिणमों की है उससे ही कषायों का नाश होता है। इसलिए भगवती आराधना में आचार्य ने इस प्रकार कहा है- कषाय से कलुषित मन में परिणामों की विशुद्धि नहीं होती और परिणमों की विशुद्धि ही कषाय सल्लेखना कही है। परिणामों की विशुंिद्ध कि बिना उत्कृष्ठ भी तय करने बाले साधु ख्याति आदि के कारण तप करते हैं ऐसा समण्पा चाहिए इसलिए परिणम विशुद्ध नहीं होते और जो शरीर की सल्लेखना निरतिचार करते हुए अन्तरंग से रागद्वेषादि रूप् भाव परिग्रह नहीं छोड़ पाये है। वे संक्लेश परिणामों से संसार परिभ्रमण करते हैं1 इसी प्रकार पंडित आशाधर जी ने भी इस बात को बलपूर्वक कहा है कि कषाय को कृश करने के लिए शरी का कृश किया जाता हे केवल शरीर को कृश करने के लिए नहीं।
सल्लखेना के भेद – आचार्य शिवार्य ने भगवती आराधना में दो प्रकार की सल्ल्ेखना कहा है- आभ्यन्तर औश्र बाहा । यहाॅ। आभ्यन्तर सल्लेख्ना कषायों में होती है और बाहा सल्लेखना शरीर में अर्थात् कषायों को कृश करना आभ्यन्तर संल्लेखना और शरीर को कृश करना बाहा सल्लेखना है।2 पंचास्तिकाय की वतात्पर्यवृत्ति टीका में सल्लेखना द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार की कही हे तहाॅं आत्मसंस्कार के अनन्तर उसके लिए ही का्रेधादि कषाय रहित अनन्त ज्ञानादि गुण लक्षण परमात्म पदार्थ में स्थित होकर रागादि कषायों का कृश करना भाव सल्लेखना हे औा भाव सल्लेखना के लिए काय क्लेशरूप् अनुष्ठान करना अर्थात् भोजन आदि का त्याग करके शरीर को कृश करना द्रव्य सल्लेखना है।3
1- भ ़ आ ़/ मू ़ गा ़/ 256ध्257ध्258ध्1674
2- भ ़आ ़ मू ़ 206ध्423
3-प ़ का ़/ ता ़वृ ़ 173ध्353ध्17
प्र भोजन त्याग ने कषायों के शमन का क्या सम्बंध है और यदि मुख्यता कषाय कृश करने की है तो हम कषाय ही कृश करे शरीर क्यों
श्रावक को सल्लेखना के सोपान – यथोचित रूप् से सल्लेखना वही ले सकता है जिसने जीवन में व्रतों का पालन किया हेा। आचार्य उमास्वामी ने अणुव्रत गुणव्रत एवं शिक्षाव्रत के बाद संल्लेखना कही है इससे समझ आता है कि सल्लेखना का प्रथम सोपान अणुव्रतादिकों का ग्रहण करना है तभी अन्त में संल्लेखना कार्यकारी हो सकती है। ।
भगवती आराधना में भी कहा है कि पूर्वकाल मे जिस जीव ने रन्तत्रय की आराधना न की हो वह मरण समय उसकी आराधना करले ऐसा व्यक्ति उस अन्धे व्यक्ति के समान होता है जिसके स्थाणु से टकराकर नेत्र खुल जाये और स्थाणु की जड़ में पड़े रन्त का लाभ मिल जाये।1 इसी ग्रन्थ में आचार्य ने एक स्थान पर सल्लेखना की भावना का अभ्यास जीवन प्र्यन्त करना योग्य कहा है उनके अनुसार मरण समय में रन्तत्रय की सिद्धि के लिए सम्यसग्दर्शनादि कारण कलाप सामग््राी की अवश्य प्राप्ति कर लेना चाहिए अर्थात् उसका अभ्यास सर्वदा करना योग्य है क्रूोंकि ऐसा करने बाले को मरण समय में बिना क्लेश के एस आराधना की सिद्धि हो जाती हे।2 उदाहरण के लिए जैसे कोई छात्र प्रारंभ से ही विद्यालय के पाठ्क्रम का अभ्यास सतत् करता है तो परीक्षा के समय उसे अधिक परिश्राम की आवश्यकता नहीं होती मानसिक तनाव औश्र चिन्ता भी नहीं होती और वह अधिकाधिक अंक प्राप्त करता है ।
आचार्य श्री अमृतचन्द्रस्वामी भी सल्लेखना पूर्वक मरण करने की भावना को निरन्तर हदयार्डण में रखने को कहा है उनके अनुसार – यह एक ही सल्लेखना मेरे धर्मरूपी धन के मेरे साथ्ज्ञ ले चलने को समर्थ है । मैं मरणकाल में अवश्य ही शात्रोक्त विधि से समाधिमरण करूॅंगा इस प्रकार भावना रूप् परिणति करके मरणकाल प्राप्त होने के पहले ही यह सल्लेखना व्रत पालना चाहिए।3
1 – भ ़आ ़ मू ़ /24/83
2 – भ ़ आ ़मू ़/18-21
3 -पु ़सि ़3/175-176
पं ़ आशाधर जी ने भावनना भवनाशिनी कह कर इस भावना को प्रामाणिकता दी है एवं भगवती आराधना में और भी कहा है कि मरण समय रन्तत्रय की विराधना से विराधक को दीर्घकाल तक संसार भ्रमण करना पड़ता है तथा शिक्षा- दीक्षा काल में विराधना हो गई तो भी मरण समय में रन्तत्रय की प्राप्ति करके संसार नाश हो सकता है।
संक्षेप में अपने शब्दों में कहा जा सकता है कि सर्वप्रथम तो सल्लेखना की भावना जीवन प्र्यंत रखना चाहिए क्योंकि हम जो चिंतन में लाते हैं वही कार्यन्वित करने को तत्पर होते है तथा व्रतादिको को ग्रहण करके अनशनादि तपों का अभ्यास एवं रसादि का अभ्यास करते रहने से सल्लेखना दुष्कर नहीं है । तथा व्रतादिक न भ्ज्ञी ले पाये ंतो भी भावना प्रबल होने से एवं गुरु के सानिध्य से सल्लेखना धारण की जा सकती है ।
सल्लेखना का महत्व एवं फल – प्राय: समस्त आचायों ने सल्लेखना का फल निकट भवों में मोक्ष ही कहा है । किन्ही आचार्य ने 3-4 भवों में! किन्ही ने आठ/ भवों में एवं किन्ही ने इक्कीस भवों में मोक्ष कहा है ।3
अतिशयिता वर्णित करते हुए आचार्य समन्तभद्र वर्णित करते हैं – पिया है धर्मरूपी अमृत जिसने ऐसा सल्लेखना धारी समस्त प्रकार के दु:खों से रहित होता हुआ अपार दुस्तर और उत्कृष्ट उदय बाले मोक्ष रूपी सुखसमुद्र का पान करता है।4
आ ़ शिवार्य प्रतिपादित करते हैं कि स्वर्गों में सुख भोगकर वे वहाॅं से चयकर उत्तम मनुष्य भव में जन्मधारणकर सम्पूर्ण ऋिद्धियों को प्राप्त करते हैं । पीछे वे जिनधर्म अर्थात् मुनिधर्म व तपादिक का पालन करते हैं एवं शुक्ल लेश्या की प्रापितकर वे शुक्लध्यान से संसार का लान करते हैं ।5
1- भ ़ आ ़ मू ़ गा ़/2086/-87/ 2- पं ़ पु ़ / 14/ 204
3- धर्म परीक्षा/19/96
4- र ़क ़ श्रा ़ /130
5- भ ़आ ़/ मू ़1942- 45
संल्लेखना में लगने बाले अतिचार – जीवितमरणाशंसामित्रानुरागसुखानुबंध- निदानानि ये पाॅंच प्रकार के अतिचारों से रहित होकर ही सल्लेखना पूर्ण शुद्धि को प्राप्त हो सकती है । इसमें पूजादि को देखकर जीवितशंसा अत्यधिक कष्ट के कारण मरने की इच्छा मरणशंसा मित्रों के प्रति अनुराग रखना मित्रानुराग और सुखों का बारम्बार स्मरण सुखनुबन्ध तथा तप के फल को आगामी भोग के रूप् में चाहना निदान है। ये अतचार यदि ज्ञात यप् में किये जाते हैं तो अनाचार बनकर सल्लेखना की तपस्या को नष्ट कर देते हैं अत: सल्लेखना में इन अतिचारों को ध्यान पूर्वक दूर करना चाहिए ।
उपसंहार – हर मनुश्य मरण को प्राप्त होता है और यही एक सत्य सभी को ज्ञात है तब बुद्धिमान आगमानुसार भक्तप्रत्याख्यान विधि से सल्लेखना पूर्वक मरण करता है तो उसका मरण भी मृत्युमहात्सव में परिवर्तित हो जाता है । सल्लेखना का प्रारंष मात्र होने से ही उसके सांसारिक बंधन खुलना प्रारंभ हो जाते हें एवं मोह में शिथिलता आने लगती है । क्षमा भाव को धारण करने से मल शीतल हो जाता है एवं आत्मा में इशधर्म प्रकट होने लगते ळै और आत्मा मुक्ति पथ पर अग्रसर हो जाता है यह मरण समस्त व्रतरूपी जिनालय के लिए शिखर स्वरूप् है अत: जैनदर्शन का अश्ययन करके प्रत्येक श्रावक को सल्लेखना धारण करना चाहिए यही सभी श्रावकाचार ग्रन्थों का सार है।
पूज्य क्षमासागर जी महारा की ये पॅंक्तियाॅं भी बहुत प्रेरक हैं-
कुछ लोग जीतके हैं कुछ इसतरह
मानो जीना नहीं चाहते
जीना पड़ रहा है
कुछ लोग मरते वक्त मरते है। कुछ इस तरह
मानो मरना नहीं चाहते
मरना पड़ रहा है
शायद इसीलिए जीवन दोहराना पड़ रहा है ।
जय जिनेन्द
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